SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे प्रमाणे वा, 'अयणे वा' अयने-ऋतुत्रयप्रमाणे वा, 'संवच्छरे वा' संवत्सरे-अयनद्वयप्रमाणे वा 'अन्नयरे वा' अन्यतरस्मिन् वा 'दीहकाले' दीर्घकाले-वर्षशतादौ 'पडिबंधे' प्रतिबन्धो भवति, अयं प्रतिबन्धः 'तस्स तस्य प्रभोः ‘एवं' एवं-ममेदमिति भावपूर्वकं 'ण भवई' न भवति-नासीदिति । तथा-'भावओ' भावतः प्रतिवन्धः 'कोहे वा' क्रोधे वा 'जाव' यावत्पदेन-'माणे वा मायाएवा' माने वा मायायां वा-इति संग्राह्यम् , तथा 'लोहे वा' लोभे वा' 'भए वा भये वा, 'हासेवा' हासे वा भवति, स प्रतिबन्धः 'तस्स' तस्य प्रभोः 'एवं' एवं-ममेदमिति भावपूर्वकं 'ण भवई' न भवति-नासीदिति । 'से' स प्रतिबन्धरहितः 'ण' खलु 'भगवं' भगवान् 'वासावासवज्ज' वर्षावासवर्ज-वर्षासु-वर्षाकाले वास:बसनं निवासस्तद्वजे-वर्षाकालं विहायेत्यर्थः शेषयोः 'हेमंतगिम्हासु' हेमन्तग्रीष्मयोः ऋत्वोः 'गामे एगराइए' ग्रामे एकरात्रिका-एकरात्रपर्यन्त निवासकृत् 'णयरे पंचराइए' नगरे पाश्चरात्रिको 'वबगयहाससोग अरइ भय परित्तासे' व्यपगतहासशोकारतिभयपरित्रासाः, व्यपगता:-दुरीभूता हासशोकारतिभयपरित्रासाः-हास:-हास्यं, शोकः प्रसिद्धः, में पक्षद्वय प्रमाण समय में, एक ऋतु में मास द्वयप्रमाण समय में एक अयन में ऋतुत्रयप्रमाण समय में, एक संवत्सर में-अयनद्वय प्रमाण समय में अथवा और भी किसी लम्बे समयवाले वर्षशतादि सूपकाल में नहीं था, प्रतिबन्धशब्द का अर्थ ममत्वभाव है, ऐसा ममत्वभाव प्रभु को न द्रव्य में था, न क्षेत्र में था, और न काल में था, "भावओ-कोहे वा जाव लोहे वा भए वा हासे वा एवं तस्स ण भवइ" इसी तरह भाव की अपेक्षा प्रतिबन्ध उन प्रभु को न क्रोध में था न "यावत्पद" ग्राह्य मान में था, न माया में था, और न लोभ में था और न हास्य में ही था इस तरह प्रतिबन्ध रहित हुए वे प्रभु सिर्फ “से णं भगवं वासा वासवग्ज" वर्षाकाल के समय को छोड़कर शेष "हेमंत गिम्हासु" हेमन्त और ग्रीष्म ऋतुओं में "गामे एगराइए" ग्राम में एक रात्रपर्यन्त निवास करते थे, "णयरे पंचराइए" नगर में पांच रात्रि ये प्रभु पूर्वोक्तरूप से "ववगयहाससोगअरइभयपरित्तासे णिम्ममे णिरहंकारे', हास्य, शोक, अरति-- માસમાંએપક્ષ વાળા સમયમાં એક ઋતુમાં- બે માસ પ્રમાણુ સમયમાં, એક અયનમાં-ત્રણ હતુ પ્રમાણુ સમયમાં, એક સંવત્સરમાં-બે અયન પ્રમાણવાળા સમયમાં અથવા બીજા કોઈ પણ દીર્ઘ સમયવાળા વર્ષ શતાદિ રૂપ કાળમાં પ્રતિબન્ધ ન હતા. પ્રતિબન્ધ શબ્દનો અર્થ भभावमा छे. मेवो भमराव प्रभुने द्रव्यमा क्षेत्रमा अजमानतो. भावओ कोहे वा जाव लेहे वा भए वा हासे वा एवं तस्स ण भवइ' 4 प्रमाणे मानी अपेक्षा त પ્રભુને પ્રતિબંધ-મમત્વભાવ- ન ક્રોધમાં હતો, ન યાવત્પદ ગ્રાહ્યા-માનમાં હતે. ન માયામાં હતે ન લોભમાં હતા. તેમજ ન હાસ્યમાં હતું. આ પ્રમાણે પ્રતિબન્ધ રહિત થયેલા તે પ્રભુ त 'से गंगवं वासावासवज्ज' वर्षामना समय मा ४रीन माहीमा 'हेमंतगिम्हासु' हेमन्त मन श्रीभ तुमा 'गामे एगराइए' श्राममा ४ रात्र ५य"तनिवास ४२ता ता. 'जयरे पंचराइप' नगरभ पांय रात पर्यन्त से प्रभु पूर्वेति प्रमाणे निवास ४२ता तो 'वबगय हाससोगअरइभयपरित्तासे णिम्ममे निरहंकारे' हास्य, , पति मानसि द्वेष, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy