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________________ ३६६ जम्बद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे रहितो भवति, तथैवासौ प्रभुरपि अप्रतिबन्धविहारित्वेन वसत्यादि प्रतिबन्धरहितोऽभूदित्यर्थः । तथा 'चंदो इव सोमदंसणे' चन्द्रइव सौम्यदर्शनः यथा चन्द्रः प्रियदर्शनत्वेन सर्वेषां मनोनयनालादजनको भवति तथैवासो प्रभुरपि सर्वेषां मनोनयनानन्दकर आसीदित्यर्थः । तथा 'सूरो इव तेयंसी' सूर इव तेजस्वी यथा-सूर्यः चन्द्रनक्षत्रादीनां तेजोऽपहारको भवति तथैवासो प्रभुरपि सकल परतीर्थिक तेजोऽपहारकोऽभूदित्यर्थः । तथा-'विहग इव अपडिबद्धगामी' विहग इव अप्रतिबद्धगामी-अप्रतिबद्धः प्रतिबन्धरहितः सन् गच्छतीत्येवं शीलः अप्रतिबद्धगामी-यथा-विहगः पक्षीप्रतिबन्धराहित्येन स्वावयवभूतपक्षसापेक्षः सर्वत्र विहरति तथैवासो भगवान् कर्मक्षयसहायकारिषु अनेकेष्वनार्यदेशेषु परानपेक्षः सन् स्वशक्त्या विहरतीति भावः । तथा 'सागरो इव गंभीरे' सागर इव गम्भीरः यथा सागरोऽतलस्पी भवति तथैवायं टोक के सर्वत्र विहरणशील होती है उसी प्रकार प्रभु भी अप्रतिबन्ध विहारी होने के कारण स्थान के प्रतिबन्ध से रहित थे, अर्थात् वसति आदि में ममत्व रहित थे, "चंदो इव सोम दंसणे" चन्द्र की तरह प्रभु सौम्य दर्शनवाले थे चन्द्र जिस प्रकार से प्रिय दर्शनवाला होने के कारण समस्त जीवों के मन और नयनों को आह्लाद जनक होता है उसी तरह प्रभु भी समचतुरस्र संस्थान एवं वज्रऋषभसंहनन के धारी होने से सब जीवों के मन और नेत्रों को आनन्द देने वाले थे "सूरो इव तेयंसी" सूर्य की तरह प्रभु तेजस्वी थे सूर्य जिस प्रकार नक्षत्रादिकों के तेज का अपहारक होता है उसी प्रकार पभु भी सकल परतोर्थिक जनों के तेज के अपहारक थे, “विहगइव अपडिबद्धगामी" पक्षी की तरह प्रभु अप्रतिबद्ध गामो थे' पक्षी जिस प्रकार प्रतिबन्ध रहित होने के कारण केवल अपने अवयवभूत पंखो के बल पर सर्वत्र विहार करता है उसी प्रकार पभु भी कर्मक्षय में सहायकारी अनेक अनार्यदेशों में परानपेश होकर अपनी शक्ति के बल पर विहार करते थे 'सागरो इव गंभोरे" प्रभु समुद्रकी तरह गंभीर थे, सागर जिस प्रकार अगाध होने के कारण किसी के भी द्वारा तल स्पर्शी પ્રતિબન્ધ વિહારી લેવા બદલ સ્થાનના પ્રતિબન્ધથી રહિત હતા, એટલે કે વસ્તી વગેરેમાં भभाव विहीन ता. 'चंदो इव सोमदंसणे" प्रभु यन्द्रवत् सीम्यहनवाण ता. रेम ચન્દ્ર પ્રિયદર્શી રહેવા બદલ સર્વ જીવના મન અને નેત્રોને આહલાદ આપનાર હોય છે, તે મજ પ્રભુ પણ સમચતુરન્સ સંસ્થાન તેમજ વજી ઝાષભ સં હનનના ધારી લેવાથી સર્વ लवाना मन भने नत्राने मान पाउना२ छे. "सूरइव तेजस्वी' प्रभु सूर्य ना मत। સ્વી હતા. સૂર્ય જેમ નક્ષત્રાદિકના તેજનો અપહર્તા હોય છે. તેમજ પ્રભુ પણ સમસ્ત ५२तीथिनाना न अपहता sal. "विहग इव अपडिबद्धगामी' पक्षीनी भ प्रभु અપ્રતિબદ્ધગામી હતા. પક્ષી જેમ પ્રતિબધ રહિત લેવા બદલ કૂકત પોતાના અવયવભૂત પંખેના આધારે સર્વત્ર વિહાર કરે છે તેમજ પ્રભુ પણ કર્મક્ષયમાં સહાયકારી અનેક આ नाय शोभा पशनपेक्ष थईने स्ना माधारे विहार रे छ. 'सागरो इव गंभीरे' सागर જેમ અગાધ હે વાથી અતલસ્પર્શી હોય છે. તેમજ પ્રભુ પણ અતલ સ્પશી એટલે કે ગૂઢ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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