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________________ प्रकाशिका टीका द्विवक्षस्कार सू. ४० ऋषभस्वामिनः दीक्षितानन्तरकर्तव्यनिरूपणम् ३६५ मलरहितत्वात् सुदर्शन इत्यर्थः, 'आदिरसपडिभागे इव' आदर्श प्रतिभाग इव आदर्शदर्पणे यः 'पागडभागे' प्रतिभागः प्रतिविम्नः स ईव प्रकटभावः प्रकट अनिगूहितः भावः अभिप्रायो यस्य स तथा, यथा दर्पणे यथास्थित मुखादेः प्रतिबिम्बः प्रतिफलितो भवति तथैव भगवान् ऋषमोऽपि सर्वदाऽनिगृहिताभिप्राय आसीत्, न तु शठ इव निगृहिताभिप्राय इति भावः । तथा 'कूम्मो इव गुत्तिदिए' कूर्म इव गुप्तेन्द्रियः-यथा कूर्मों भये समुपस्थिते चतुरश्चरणान् ग्रीवां च संगोपयति, तथैवासौ भगवान् शब्दादि भयेभ्यः सर्वदा संगोपितपञ्चेन्द्रिय आसीदिन्यर्थः । तथा 'पुक्खरपत्तमिव' पुष्करपत्रमिव कमलपत्रमिव 'निरुवलेवे' निरुपलेपः-उपलेपवर्जितः, यथा कमलपत्रं पड़ेजातं जले संवर्द्धितमपि जलादुपरि निर्लिप्तं तिष्ठति, तथैवासौ भगवान् भोगे समुत्पन्न: स्वजनादिषु संवड़ितोऽपि तत्स्नेहरूपलेपरहित इत्यर्थः। तथा 'गगगमिव निरालंबणे' गगनमिव निरालम्बनः यथा-गगनम् अवष्टम्भरहितं भवति तथैवासौ भगवान् कुलग्रामनगरादिनिश्रारहितोऽभूदित्यर्थः । तथा 'अनिले इव' अनिल इव-वायुरिव 'निरालए' निरालयः=आलयवर्जितः, यथा वायुः सर्वत्र संचरणशीलत्वेन स्थानप्रतिबन्धशठ की तरह निगूहित अभिप्रायवाले नहीं थे । “कुम्मो इव गुतिदिए" कच्छप जिस प्रकार भय के उपस्थित होने पर अपने चारों चरणों को और ग्रीवा को संकुचित कर लेता है उसी प्रकार प्रभु भी शब्दादिकों में आसक्ति हो जाने के भय से सर्वदा अपनी पांचों ही इन्द्रियों को उनके विषयों से संगोपित-सुरक्षित रखे हुए थे, "पुक्खपत्तमिव निरुवळेवे" प्रभु कमलपत्र की तरह उपलेप से रहित थे, जिस प्रकार कमल कीचड़ में उत्पन्न होता है और जल में संवर्द्धित होता है तब भी वह जल के ऊपर ही रहता है और उससे निर्लिप्त बना रहता है उसी तरह भगवान् भोग में उत्पन्न हुए और अपने संबंधि जनों के बीच में संवर्द्धित हुए फिर भी उनके स्नेहरूपलेप से रहित ये, 'गगणमिव निरालंबणे' प्रभु आकाश की तरह अवलंबन से रहित थे, आकाश विना सहारे के जैसा रहता है उसी प्रकार प्रभु भी कुल ग्राम आदि की निश्रा से रहित थे, “अणिले इव निरालए" वायु जिस प्रकार संचरण शील होने से विना किसो रोक मनिप्रायवान होता "कूर्म इव गुप्तेन्द्रियः" ४२७५ रभ भयावस्थामा पाताना या પગ અને ગ્રીવાને સંકુચિત કરી નાખે છે. તેમજ પ્રભુ પણ શબ્દાદિ વિષયોમાં આસકિત ન થઈ જાય તે ભયથી સદા પોતાની પંચેન્દ્રિયોને તેમના વિષથી સંગોપિત–સુરક્ષિત समता ता. "पुक्खरपत्तमिव निरुलेवः' प्रभु मनी रेभ पखेपथी २हित . જેમ કમળ કાદવમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અને પાણીમાં સંવાદ્રિત થાય છે, છતાંએ તે જલ ઉપર જ રહે છે અને તેનાથી નિર્લિપ્ત થઈ ને રહે છે, તેમજ ભગવાન્ ભાગમાં પ્રકટ થયા અને પિતાના સંબંધિઓની વચ્ચે રહીને મોટા થયા છતાંએ તેમના સ્નેહરૂપ લેપથી રહિત હતા "गगनमिव निरालंबणे' प्रभु माशनी म मन विहीन ता. माम सखा। १५२ २९ छे तभ प्रभु पर ण, ग्राम वगेरेनी निश्राथी २डित ता. "अणिले इव निरा ” વાયુ જેમ સંચરણશીલ હોવાથી સર્વત્ર વિહરણશીલ હોય છે, તેમજ પ્રભુ પણ આ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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