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________________ ३४८ जम्बद्वीपप्रशतिसूत्रे तेsपि निर्ममा भगवत्प्रेरिताः सन्तः उपहाररूपेणैव तं जगृहु: । जिनानामयमेव जीतकल्पो यद् ग्रहीतृणाम् इच्छावधि दातव्यमिति । ननु जिनस्य याचकेच्छावधिदानं यदि जीतं, तर्हि साम्प्रतिक एक एव महेच्छो याचकः एकदिनदेयं संवत्सरदेयं वा ग्रहीतुमिच्छेत् ? इति चेत् आह, प्रभु प्रभावेण तेषां तथाविधेच्छाया असंभवादिति । तथा - 'सुदंसणा ए' सुदर्शनायां =सुदर्शना नाम्न्या 'सीयाए' शिविकायां समारूढः । 'समारूढ' इत्यध्याहार्यम् । तथा 'सदेव मणुयासुराए' सदेव मनुजासुरया - मनुजाश्च असुराश्चेति मनुजासुराः देवैः सहिता मनुजासुरा यस्यां सा तथा तया परिसाए' परिषदा 'समणुगम्ममाणमग्गे' समनुगम्यमान मार्गोऽभूदित्यध्याहार्यम् । तत एवं विधं तं भगवन्तं 'संखियचक्किय गंगलियमुहजनों के अभाव होने से "दायं दाइयाणं परिभाएत्ता" दायादों में इन्हें विभक्तकर "सुदंसणाए सीयाए" वे प्रभु सुदर्शना नामक' रमणीय शिविका में आरूढ हो गये. जिस समय प्रभु ने दायादों को पूर्वोक्त द्रव्य विभक्त कर दिया था उस समय उन दायादों ने निर्मम होकर भगवान् के द्वारा प्रेरित होकर - उपहाररूप से ही उस विभक्त द्रव्य को ग्रहण किया था. जिनों का यही आचार है जीतकल्प है कि वे गृहोता जनों को उनकी इच्छा के अनुसार ही दान देते हैं । शंका- यदि याचक जनों को उनकी इच्छा के अनुसार ही दान देना जितेंन्द्रदेव का आचार है तो उस समय का एक महतो इच्छा वाला याचक एक दिन में देने योग्य या संवत्सर में देने योग्य दान को ग्रहण करने की इच्छा क्यों नहीं करता है ? तो इसका समा यही है कि प्रभु के दिव्य प्रभाव से याचक जनों में ऐसी इच्छा नहीं होती है कि एक दिन में दिये जाने योग्य दान या संवत्सर में दिये जाने योग्य दानको मैं ही पूरे रूप से ले लूँ । सुदर्शना शिविका पर आरूढ होकर जब प्रभु चले तो उस समय “सदेवमणुयासुराए परिसाए समणुगम्यमाणमग्गे" उनके साथ साथ मनुष्यों की परिषदा कि जिसमें देव और असुर हायाहोमां ने वहेथी ने 'सुदंसणाए सीयाए' सुदर्शना नामनी सुन्दर शिमिमां तेथे આરૂઢ થયા જે સમયે પ્રભુએ દાયાદેશમાં પૂર્વાકત દ્રવ્ય વહેંચી દીધું એ સમયે એ દાયાદા એ નિમ મમત્વ રહિત થઇને ભગવાન દ્વારા પ્રેરાઇને ૮૩ પહારરૂપે એ વડે ચેલા દ્રવ્યને સ્વીકાર્યું” જીનાને એ જ આચાર છે : જીત કલ્પ છે. કે તેઓ લેનાર જનાને તેમની ઈચ્છા પ્રમાણે જ દાન દે, શંકા—જો યાચક જનાને તેમની ઇચ્છા પ્રમાણે જ દાન આપવું એવા જીનેન્દ્રદેવને આચાર છે, તે તે સમયના એક મહતી ઇચ્છા ધરાવનાર યાચક એક એક દિવસ આપવા યેાગ્ય અથવા એક વર્ષમાં આાપવા ચેાગ્ય દાનને એક સાથે જ ગ્રહણ કરવાની ઇચ્છા કેમ કરતા નથી? આ શકાનું સમાધાન એવુ છે કે પ્રભુના દિવ્ય પ્રભાવથી યાચક જને માં એવી ઈચ્છા જ થતી નથી કે એક દિવસમાં આપવામાં દાન અથવા એક વર્ષ માં આપવામાં આવનાર દાનને હું પૂરે પુરૂ લઇ લઉ. આપનાર सुदर्शना शिणिश्रम मेसीने क्यारे अ यास्या तो ते परिसाए समणुगम्यमाणमग्गे' तेभनी साथै मनुष्योनी परिषदा Jain Education International For Private & Personal Use Only अभये 'सदेवमणुयासुराए नमां देवा भने असुरो www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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