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________________ प्रकाशिकाटीका सू० २ गौतमवर्णनम् ज्येष्ठः-सर्वतः प्रथमः 'अंतेवासी' अन्तेवासी-शिष्यः 'इंद भूईणामं अणगारे' इन्द्रभूतिः इन्द्रभूतिनामा अनगारः-अगारं-गृहं तत् अविद्यमानं यस्य सोऽनगारः-श्रमणः । स कीदृशः ? इत्याह-'गोयमगोत्तेणं' गोत्रेण गौतमः-गौतमगोत्रोत्पन्नः 'सत्तुस्सेहे' सप्तोत्सेधः-सप्तहस्तप्रमाणोच्चशरीरः 'समचउरंससंठाणसंठिए' समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितःसमा:-तुल्या:-अन्यूनाधिकाः चतस्रोऽस्रयो-हस्त-पाद-पर्य धोरूपाश्चत्वारोऽपि विभागा यस्य तत् समचतुरस्रं-तुल्यारोह-परिणाहं, तच्च संस्थानम् आकार विशेष इति समचतुरस्र-संस्थानं,तेन संस्थितः युक्तः समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितः । 'जाव' यावत् यावत्पदेनवज्रऋषभ-नाराचसंहननः, कनकपुलकनिकषपद्मगौरः, तथा-उग्रतपाः, दीप्ततपाः, तप्ततपाः महातपाः, उदारः, घोरः, घोरव्रतः, घोरगुणः, घोरतपस्वी, घोरब्रह्मचर्यवासीक उच्छूढशरीरः, संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः, चतुर्ज्ञानोपगतः, सर्वाक्षरसन्निपाती इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः। तत्र चतुर्दशपूर्वी वज्रऋषभनाराचसंहननः वज्र-कीलिकाकारमस्थि, ऋषभः "तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्त' इत्यादि । "तेणं कालेण तेणं समएणं' उस काल में और उस समय में 'समणस्त भगवओ महावीरस्स,, श्रमण भगवान् महावीर के 'जेटे अंतेवासी" ज्येष्ठ-प्रधान-अन्तेवासी शिष्य कि "इंदभूई णाम अणगारे" कि जिनका नाम इन्द्रभूति अनगार था “गोयम गोत्तेणं" और जो गौतम गोत्रोत्यन्न थे "संतुस्सेहे" तथा जिनका उत्सेध ७ हाथ का था “समचउरंस संठाणसंठिए" संस्थान जिनका समचतुरस्र था अर्थात्-हाथ पैर, ऊपर और नीचे ये चार अस्त्रियां-विभाग शरीर के प्रमाणानुरूप थे न कमथे और न अधिक थे; यावत्पद के अनुसार-संहनन इनका वन्नऋषभनाराच था जिसके द्वारा शरीर पुद्गल दृढ किये जाते है उसका नाम संहनन हैं ये संहनन शास्त्रकारों ने ६ विभागों में विभक्त किये हैं इनमें यह प्रथम संहनन है इस संहनन वाले जोव की जो अस्थि होती है वह कीलिका के आकार की होती है और इसके ऊपर परिवेष्टनपट्टी के जैसी तेणं कालेणं तेण समएण समणस्स भगवओ महावीरस्स-त्या. सूत्र-॥२॥ टीकार्थ-तेंण कालेण तेण समएणते मने ते समयमा 'समणस्त भगवओ महावीरस्स" श्रमय लगवान महावीरन। 'जेढे अंतेवासी" ये४-प्रधान-तवासीशिय 'दभई णाम अणगारे' भनु नाम चन्द्रभूत मारत "गोयमगोत्तणं" भने रेमो गौतम गोत्रमा उत्पन्न येत खता “सत्तुस्सेहे तथा मनो से अया ७ साथ रेटसोती_ 'समचउरंससंठाणसंठिए' संस्थान मनु सभयतु तु भ प ता नही તેમજ વધારે પણ ન હતા–ચાવ૫દ મુજબ- સંહનન–વજ ઋષભ નારાચ રૂપ-હતું જેના વડે શરીર પુદ્ગલો સુદૃઢ કરવામાં આવે છે, તેનું નામ સંહનન છે. એ સંહનને શાસ્ત્રકારો એ ૬ વિભાગ માં વિભક્ત કરેલ છે. આમાં આ પ્રથમ સહનન છે. આ સંહનનવાળા જીવની જે એસ્થિ હોય છે તે કીલિકાના આકાર જેવી હોય છે અને તેની ઉપર પરિષ્ટન Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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