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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे प्रतिच्छन्नास्तिष्ठन्ति । अत्र यावत्पदेन् - 'जहा से चन्दप्पभामणिसिलाग वरसीधुवर वारुणि सुजाय पतपुप्फफल चोर्याणिज्जा ससार बहुदव्वजुत्ति संभार काल संधि आसवा महुमेरिट्ठाभदुद्धजाति पसन्नतल्लगसताउर खज्जूरिमुद्दियासारका विसायण सुपक्क खोयरसवर सुरा वण्णगंधरस फरिसजुत्ता बलवीरियपरिणामा मज्जविही बहुष्पगारा तहेव ते म गाव दुमगणा अग बहु विविहवीससापरिणयाए मज्जविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा वसंत कुसविस विमुद्धरुक्खमूला जाव पत्तेहिं च पुष्फेहिं च फलेहिं च ओच्छन्नपडिच्छन्ना चिद्वति' इति संग्राह्यम् । एतेषां छाया २०० यथा ते चन्द्रप्रभा मणिशिलिकावरसीधुवरवारुणी सुजात पत्र पुष्पफलचोय नियस सार वहुद्रव्य युक्ति सम्भार सन्धि आसवा मधुमेरकरिष्टाभा दुग्ध जाति प्रसन्ना तल्लकशतायुः खर्जूरी मृद्वीकासार कापिशायन सुपकक्षोदरसवरसुराः वर्णगन्धरसस्पर्शयुक्ताः बलवीर्यपरिणामाः मद्यविधयो बहुप्रकाराः तथैव ते मत्तङ्गा अपि द्रुमगणाः वहुविविधविस्रसापरिणतेन मद्यविधिना उपपेताः फलेषु पूर्णाः विष्यन्दन्ते. कुशवि कुशविशुद्ध वृक्षमूलाः यावत् पत्रैश्च पुष्पैश्च फलैश्च अवच्छन्न प्रतिच्छन्नाः तिष्ठन्ति । ण्णा चिति" इस पाठ को स्पष्टरूप से समझने के लिये यावत् पद द्वारा जो पाठ गृहीत हुआ है पहिले उसे प्रकट किया जाता है वह पाठ इस प्रकार से है- “जहा से चंदप्पभा मणि सिलाग वर वारुणि सुजय पत्तपुप्फ फलचोयणिज्जा ससार बहुदव्वजुत्तिसंभार काल संधि आसवा महुमेरगरिट्ठाभदुद्धजाति पसन्न तल्लग सताउ स्वज्जुरिय मुद्दियासारका विसायण सुपक्कखोयरस वर सुरा वण्णगंधरसफरिसजुत्ता बलवोरियपरिणामा, मज्जविही बहुत्पगारा तहेव ते मत्तंगादिदुमगणा अग बहु विविहवीससा पविणयाए मज्जविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा वीस दति, कुसविकु विसुद्ध रुक्खमूला जाय पत्तेहिं च पुप्फेहिं च फलेहिं च ओच्छन्नपडिच्छन्ना चिठ्ठति" चन्द्रप्रभा, मणिशिलिका, उत्तममद्य एवं वरवारुणी ये सब मादक रस विशेष हैं ये सब सुपरिपाकगत पुष्पों के फलों के एवं चोय इस नामके गन्धद्रव्य विशेष के रस से बनाये जाते हैं तथा इनमें शरीर को पोषण करने वाले द्रव्यों का मेल रहता है, इसी प्रकार से अनेक प्रकार के आसव ( नशा करने वाला) भी बनाये जाते हैं जो अपने अपने समय में आसवोत्पादक सीधु वरवारुणि सुजाय पत्त पुप्फफल चोयणिज्जा ससार बहुदव्वजुत्ति संभारकाल संधि आसवामहुमेरगा रिट्ठाभदुद्धजातिपसन्न तल्लग सताउखज्जुरिय मुद्दिया सारका विसायण सुपकखोय रसवर सुरा वण्णगंधरसफरिसजुत्ता बलवीरिय परिणापा मज्जविही बहुपगारा तहेव ते मत्तंगा वि दुमगणा अणेग बहुविविह वीसला परिणयाय मज्जबिशेष उववेया फलेहिं पुण्णा वीसंदति, कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव पत्तेहिं च पुष्फेदि च फलेहिं च ओच्छन्नपच्छिन्ना चिति" यन्द्रप्रभा मथि शिक्षि उत्तमभद्य तथा वरवाशी मे સર્વે માદક ૨સ વિશેષો છે. આ સવે સુરિયાકગત્ પુષ્પા ફળા તેમજ ચેાય નામક ગન્ધ દ્રવ્ય વિશેષના રસામાંથી બનાવવામાં આવે છે, તથા એમના માં શટરને પુષ્ટ કરનારા દ્રવ્યાનુ સમ્મિશ્રણ રહે છે. આ પ્રમાણે અનેક જાતના આસવા પણ તૈયાર કરવામાં આવે છે. જે Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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