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________________ प्रकाशिकाटीका द्वि० वक्षस्कार सू. २२ सुषमसुषमाख्यावसर्पिण्याः निरूपणम् १९७ समारोपितम्, तथा 'अभितरपुप्फफलाओ' अभ्यन्तरपुष्पफलाः अभ्यन्तरे पुष्पफलः सम्भृताः, 'बाहिरपत्तोच्छण्णाओ' बहिः पत्रावच्छन्नाः बहिर्भागे संजातपत्रसमूहमच्छन्नाः 'पत्तेहि य पुप्फेहि य' पत्रैश्च पुष्पैः फलैश्च 'ओच्छन्न वलिच्छत्ताओ' अवच्छन्न प्रतिच्छन्ना:-सर्वथाऽऽच्छादिताः, 'साउफलाओ' स्वादुफला:- स्वादयुक्तफलसम्पन्नाः 'निरोययाओ' निरोगका:-रोगरहिताः वृक्षचिकित्साशास्त्रप्रदर्शितरोगवर्जिताः शोतविधुदातपादि जनितोपद्रवरहिता वा, तथा 'अकंटयाओ' अकण्टकाः कण्टकरहिताः 'णाणाविह गुच्छ गुम्ममंडवगसोहियाओ' नानाविध गुच्छ गुल्म मण्डपकशोभिता:- नानाविधैः-बहुप्रकारैः गुच्छैः पुष्पस्तवकैः गुल्मैः-लताप्रतानैः मण्डपकैः-लतामण्डपैश्च शोभिताः, 'विचित्त सुहकेउ भूयाओ' विचित्र शुभकेतुभूताः-विचित्रशुभध्वज़रूपाः, 'वावी के आसव पान से चंचल हुए मत्त अन्य और षट्पदों के गुम गुम मधुर संगीत से शब्दायमान होते रहते हैं । "अम्भितरपुप्फफलाओ बाहिरपत्तोच्छण्णाओ पत्तेहि य पुप्फेहि य ओच्छन्नबलिच्छत्ताओ, साउफलाओ निरोययाओ अकंटयाओ णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवग सोहियाओ" ये वनराजियां भीतर में तो पुष्प ओर फलों से लदो हुई हैं और बाहर में पत्रों के समूह से आच्छादित हो रही हैं इनके फल मधुर रस से भरे हुए हैं इनमें किसी भी प्रकार का रोग नहीं है अथवा यहां किसी भी प्रकार का रोग नहीं रहता है वृक्षचिकित्साशास्त्र में जो रोग कहे गये हुए हैं वे रोग यहां के वृक्षों में नहीं हैं उन रोगों से यहां के वृक्ष रहित हैं, अथवा शीतजन्य, विद्युत्पात्तजन्य एवं आतप आदि जन्य उपद्रवों से ये वृक्ष सर्वथा रहित हैं। यहां कांटों का तो नाम नहीं है, ये वनराजियां नाना प्रकार के पुष्प स्तवकों से पुष्पों के गुच्छों से गुल्मों से, लता प्रतानों से, और लता मण्डपों से शोभित हैं । " विचित्त सुहके उभूयाओ वावी पुक्खरिणी दीहिया सुनिवेसियरम्मजालहरयाओ , पिंडिमणोहारिमं, सुगंधिं सुहसुरभिमणहरं च महया गंधद्धाणि मुयंताओ सव्वोउयपुप्फતેમજ કુસુમાસવ પાનથી ચંચલ થયેલ મદમસ્ત બીજા ષપદના મધુર ગુંજન સંગીતથી शहायमान थता २ छ. "अभितरपुष्फफलाओ बाहिरपत्तोच्छण्णाओ पत्तेहियपुप्फे हिय ओच्छन्न बलिच्छत्ताओ, साउफलाओ, निरोययाओ अकंटयाओ णाणाविह गुच्छ गुम्म मंडवग सोहियाओ" थे ५२मि। म२ ता पु०॥ अने साथी युक्त छ भने प्रहार પત્રોના સમૂહથી આછન્ન છે. એમના ફળ મધુર રસેથી યુક્ત છે. એમનામાં કઈ પણ જાતને રોગ નથી અથવા અહીં કેઈ પણ જાતના રોગનું અસ્તિત્વ જ નથી. અથવા વૃક્ષચિકિત્સા શાસ્ત્ર માં જે રોનું વર્ણન છે. તે રોગો અહીંના વૃક્ષોમાં નથી. અર્થાત અહીંના વૃક્ષે તે સર્વ રેગથી રહિત છે અથવા શીત જન્ય વિદ્યુત્પાતજન્ય અને આત આદિ જન્ય ઉપદ્રવથી એ વૃક્ષો સર્વથા હીન છે. અહીં કાંટાઓનું તે અસ્તિત્વ જ નથી એ વનરાજિએ અનેક જાતના પુપસ્તબકથી-પુપોના ગુચ્છથી ગુલમોથી લતા પ્રતાनाथी अने बताभ पाथी सुशालित छे. "विचित्त सुहके उभूयाओ, वावी पुक्खरिणी दीहिया सुनिवेसिय रम्मजालहरयाओ, पिण्डिमणीहारिम, सुगंधि सुहसुरभिमणहरं च महया गंधद्धाणि मुयंताओ सव्वोउय पुप्फफलसमिद्धाओ सुरम्माओ पासाईयाओ, दरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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