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________________ प्रकाशिका टीका द्वि. घक्षस्कार सू. २२ सुषमसुषमाख्यावसपिण्याः निरूपणम् १८७ अवसपिण्याः सुषमसुषमायां समायां कालविभागरूपायां प्रथमेऽरके इत्यर्थः, तस्यां कीदृश्याम् ? 'उत्तमकट्टपत्ताए' उत्तमकाष्ठाप्राप्तायां प्रशस्तप्रकृष्टावस्थां गतायां सत्यां 'भरहस्स बासस्स केरिसए' भरतस्य वर्षस्य कीदृशकः - कीदृशः ' आयारभाव पडोयारे' आकारभावप्रत्यवतारः स्वरूपपर्याय प्रादुर्भावः 'होत्था' अभवत् ? इति । भगवानाह - 'गोयमा !" हे गौतम! अस्या अवसर्पिण्याः सुपमसुषमायां समायां भरतवर्षस्य 'बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था' बहुसमरमणीयो भूमिभागोऽभवत् ' से जहा णामए आfagrats ar are frणामणि पंचवण्णेहिं तणेहि य मणीहिय उवसोभिए' तद्यथा नामकः आलिङ्गपुष्करमिति वा यावत् नानाविधपञ्चवर्णैः तृणैश्च मणि मिश्र उपशोभितः । अत्र यावच्छब्दसंग्राह्याणि पदानि राजप्रश्नीयसूत्रस्य पञ्चदश सूत्रादारभ्य एकोनविंशतितम सूत्रपर्यन्तात् सूत्रसमूहादु विज्ञेयः, तदर्थश्चापि तत्रैव मत्कृतसुबोधिनी टीकातोऽवसेय के द्वीप में स्थित भरतक्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल के "सुमसुमाए समाए" सुषमसुषमा नाम के प्रथम आरक में “उत्तम कटूपत्ताए" जब कि वह अपनोसर्वोत्कृष्ट अवस्था में वर्त रहा था “भरहवासस्स केरिसए आयारभाव डोयारे" भरतक्षेत्र का कैसा आकारभावप्रत्यवतार - स्वरूप " होत्था" था, इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - " गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, से जहा णामए आलिंगपुत्रखरेइ वा णाणामणिपंचवण्णेहिं तणेहिं य मणोहि य उवसोभिए" हे गौतम! जब जम्बूद्वीपति इस भरतक्षेत्र में अवसर्पिणी काल के समय प्रथम सुषमसुषमा नाम का प्रथम आरक अपनी सर्वोत्कृष्ट अवस्था पर चलता था उस समय यहां भूमिभाग बहुसम रमणीय था और वह ऐसा बहुसम था जैसा कि मृदंग का मुखपुट होता है यावत् वह नाना प्रकार के पांच वर्णों वाले मणियों से एवं तृणों से सुशोभित था. यहां यावत्पद से जिन पदों का संग्रह किया गया है उनपदों को यदि जानना हो तो इसकेलिये राजप्रश्नीयसूत्र के १५ वें सूत्र से लेकर १९वें सुत्र तक के कथन को देखना चाहिये. वहां पर इसविषय को उसकी सुबोधिनी टीका अपना 'सुसम सुसमाए" सुषभ सुषमा नामना प्रथम २५ भां "उत्तम कट्टपत्ता" न्यारे ते चातानी सर्वोत्कृष्ट अवस्थामा वर्ती रह्यो । "भरहवासस्स केरिसए आयारभाव - पडोयारे” भरतक्षेत्रने है। आर ला प्रत्यवतार - ( स्त्ररुप) 'होत्था' हुतो. सेना वामમાં પ્રભુ કહે છે " गोयमा ! बहुसमर णिज्जे भूमिभागे होत्था से जहाणामप आलिंग पुक्खरेह वो जाव नाणामणि पंचवण्णेहि तणेहिं य मणीहिय उवसोभिए” हे गौतम! જ્યારે જ ખૂદ્ભીપાશ્રિત આ ભરતક્ષેત્રમાં અવસર્પિણી કાળના સમયે પ્રથમ સુષમસુષમા નામક પ્રથમ આરક પેાતાની સર્વોત્કૃષ્ટ અવસ્થા પર ચાલી રહ્યો હતું, તે સમયમાં અહી’ ભૂમિ ભાગ બહુ સમ રમણીય હતા અને તે એવા બહુસમ હતા કે જેવા મૃદ ંગના મુખ ૫૮ ને આકાર હોય છે. યાવત્ તે અનેક પ્રકારના પાંચ વધુ વાળા મણિએ થી તેમ જ તૃણેાથી સુÀાભિત હતા અહીં યાવપદ થી જે પદાના સ ંગ્રહે કરવામાં આવેલ છે તે પદે વિષે તે જાણુવાની ઈચ્છા હોય તે એના માટે રાજપ્રશ્નીય સૂત્રના ૧૫ માં સૂત્ર થી માંડી ને ૧૯ માં સૂત્ર સુધીના કથનને જોવુ જોઈ એ. અહીં' આ વિષય ને તેની સુખે Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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