SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे कोटीकोटोप्रमाणः कालः सूक्ष्मपल्योपमम् । "विचित्राकृति राचार्यस्य' इति सूत्रकारणा नुक्तमपीदं स्वयं विज्ञेयम् । इदं सूक्ष्मपल्योपममेवच प्रस्तुतोपयोगी । अन्यथाऽनुयोगद्वारा दिभिः सह विरोधः प्रसज्येतेति सर्वमुपपन्नम् । एवमग्रे सागरोपमेऽपि विज्ञेयमिति । ____ अथ गाथया सागरोपमस्वरूपपमाह-'एएसिं' इत्यादि । 'एएसि'एतेषाम्-अनन्तरोक्तानां 'पल्लाणं' पल्यानां-पल्योपमानां या 'दसगणिया कोडाकोडी हवेज्ज' दश गुणिता कोटी कोटी र्भवेत् 'तं' तत् 'एगस्स' एकस्य 'सागरोवमस्स' सागरोपमस्य 'भवे परिमाणं' परिमाणं भवेत् ॥१॥ इति । 'एएणं सागरोवमप्पमाणेणं चत्तारि सागरोवमकोडाकोडोओ कालो सुसममुसमा' एतेन सागरोपमप्रमाणेन चतस्रः सागरोपमअपहार होते २ उनसे सर्वथा निलिप्त बन जाता है ऐसा यह असंख्यातकोटीकोटी वर्षप्रमाणवाला काल सूक्ष्म पल्योपम काल कहा गया है । यही विषय “एएणं जोयणप्पमाणेणं जे पल्ले" इत्यादि सूत्रपाठ से लगाकर “णि ट्ठए भवइ सेतं पलिओवमे" यहां तक के सूत्रपाठ द्वारा स्पष्ट की गई है। यद्यपि यहां पर सूत्रकार ने सूक्ष्मपल्योपम के विषय में अपने स्वतेज रूप से विचार प्रगट नहीं किये हैं परन्तु फिर भी “विचित्राकृतिराचार्यस्य" के अनुसार अनुक भी इसे स्वयं समझ लेना चाहिये. क्योंकि यह सूक्ष्म पल्योपम हो प्रस्तुत में उपयोगी है । यदि ऐसा न हो तो फिर अनुयोगादि द्वारों के साथ विरोध का प्रसङ्ग प्राप्त होगा, इसी तरह का कथन सागरोपम के संबंध में भी जानना चाहिये; अब सूत्रकार इस गाथा द्वारा सागरोपम के स्वरूप का कथन करते हुए कहते हैं __ "एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिआ । तं सागरोवमस्स उ एगस्स भवे परिमाणं ॥१॥ पल्योपम की जो दश गुणित कोटी कोटी है वही एक सागरोपम प्रमाण है। अर्थात् कोटी कोटो पल्योपम को १० दश से गुणित करने पर एक सागरोपम होता है. ऐसे सागरोपम તે બાલાના અપહાર થી સર્વથા નિર્લિપ્ત બની જાય. એવે તે અસંખ્યાત કેટી કેટી વર્ષ પ્રમાણુ વાળે કાળ સૂક્ષમ પલ્યોપમ કાળ કહેવામાં આવે છે. એ જ વિષય “guળ जोयणप्पमाणेण जे पल्ले" त्या सूत्र पाथी भांजन 'णिट्ठिए भवइ से तं पलिओवमे' मी સુધીના સૂત્રપાઠ વડે સ્પષ્ટ કરવામાં આવેa છે, જે કે અહીં સૂત્રકારે સૂમપલ્યોપમના विष पोताना स्वतंत्रशते वियारे। यत या नथा छ " विचित्राकृतिराचार्यस्य" ના મુજબ અહીં અનુકત છે તે પણ સમજી લેવું જોઈએ કેમકે આ સૂક્ષમ પલ્યોપમ જ પ્રરતુતમાં ઉપયોગી છે. જે આમ હોય નહિ તો પછી અનુગાદિ દ્વારે સાથે વિરોધની સ્થિતિ ઉપસ્થિત થશે. આ જાતનું કથન સાગરોપમના સંબંધમાં પણ જાણવું જોઈએ, હવે સૂત્રકાર આ ગાથા વડે સાગરોપમ ના સ્વરૂપનું કથન કરતાં કહે છે पएसि पल्लाणं कोडा कोडी हवेज्ज दस गुणिआ। तं सागरोवमस्स उ एगस्स भवे परिमाणं ॥१॥ પલ્યોપમની જે દશ ગુણિત કેટી કેટી છે તેજ એક સાગરોપમનું પ્રમાણ છે, એટલે Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy