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________________ प्रकाशिका टोका सू० २१ कालस्वरूपम् तिज्ञानिनामसंव्यवहार्यः, अत एवात्र स न निर्दिष्ट इति । शीर्षप्रहेलिकातः. परंतु अनतिशयज्ञानिभिग्रहीतुमशक्यम्' अतस्तदौपमिकम्-उपमया सादृश्येन निवृत्तं बोध्यमिति । एतदेव सूचयितुमाह-तेण परं ओवमिए' इति । 'तेण' इति पञ्चम्यर्थे-तृतीया बोध्येति ॥२०॥ पूर्वमौपमिकमुक्त तदेव प्रश्नोत्तराभ्यां निरूपयितुमाहमूलम्- से किं तं उवमिए, उविमिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पलि ओमे य सागरोवमे य। से कि तं पलिओवमे? पलिओवमस्स परूवणं करिस्सामि' परमाणु दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुहुमे य वावहारिए य, तत्थ णं जे से सुहमे से ठप्पे, तत्थ णं जे से वावहारिए से णं अणंताणं सुहुमपरमाणु पुग्गलाणं समुदय समिइ समागमेणं वावहारिए परमाणु निप्फज्जइ, तत्थ णो सत्थं कमइ सत्थेण सुतिक्खेण वि छेत्तुं भेत्तं च किर ण सक्का । तं परमाणु सिद्धा वयंति आई पमाणाणं ॥१॥ वावहारिय परमाणूणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा उस्सण्हन्तर देवों का एवं सुषमदुष्षमारक में उत्पन्न हुए नर और तिर्यञ्चों का, जानना चाहिये इस काल से भी आगे जो सर्षपचतुष्पल्य प्ररूपणागम्य काल है वह भी संख्यात काल ही है परन्तु वह अन तेशयज्ञानियों के ज्ञान का विषय नहीं होने से असंव्यवहार्य है इसीलिये उसे यहां निर्दिष्ट नहीं किया गया है शीर्षप्रहेलिका से आगे का जो काल है वह अनतिशय ज्ञानियों द्वारा गम्य नहीं हो सकता है इसलिये उसे औपमिक कहा गया है अर्थात् उसका ज्ञान उपमा देकर ही कराया जाता है अर्थात् वह सादृश्य से बोध्य है- इसीलिये 'तेण परं ओवमिए' ऐसा सूत्रकार ने कहा है । 'तण' यह तृतीया विभक्ति पंचमी विभक्ति के अर्थ में हुई है ॥२०॥ ભવનપતિ દેવના તેમજ સુષમ દુષમારકમાં ઉત્પન્ન થયેલા નર અને તિર્યંચાને જાણ જોઈએ. આ કાળ કરતાં પણ આગળ જે સર્ષ પચતુષ્ટય પ્રરુપણું ગમ્ય કાળ છે તે પણ સંખ્યાત કાળ જ છે. પરંતુ તે અનતિશય જ્ઞાનીઓના જ્ઞાનને વિષય નથી તેથી તે અસં વ્યવહાર્યા છે. એથી જ તેને અડી નિર્દિષ્ટ કરવામાં આવેલ નથી. શીર્ષપ્રહેલિકા પછી જે જે કાળ છે. તે અનતિશય જ્ઞાનીઓ વડે ગમ્ય થાય તેવું નથી એથી તેને ઔપમિક કહેવા માં આવેલ છે એટલે કે તેનું જ્ઞાન ઉપમા વડે જ સંભવી શકે તેમ છે. એટલે કે તે સાદ श्यथा माध्य छे. मेथी । "तेण परं ओवमिए" मे सूत्र धुं छे. "तेण" मातृतीया વિભકિત પંચમીના અર્થ માં થઈ છે. ૨૦ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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