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________________ १४४ जम्बूद्वीपप्राप्तिस्त्रे 'देसूर्ण कोसं उडढं उच्चत्तण' देशोनं क्रोशम ऊर्ध्वम उच्चत्वेन वर्तते इति । अयं भावः धनुस्सहस्रद्वयप्रमाण एकः क्रोशो भवति । "किञ्चिद्देशोन" शब्देनेह षष्ट्यधिक पञ्चशतधनुन्यूनताविवक्षिता । एवं चेदं भवनं चत्वारिंशदधिक चतुर्दशशतधनुः प्रमाणमुच्चत्वेन भवतोति । अर्थः नामानुगतोऽर्थः 'अट्ठो तहेब' तथैव अर्थ अन्वर्थ ऋषभकूटस्य तथैव यथा जीवाभिगमादौ यमकादीनां पर्वतानामुक्तः तथैवौचित्येन वक्तव्यः । तदभिलापसूत्रं तु 'उप्पलाणी' त्यादिना सूचितं तदनुसृत्य सूत्रमेवं वक्तव्यम् तथाहि ‘से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ उसहकूडपव्यए २१ गोयमा उसहकूडपव्वए खुड्डासु वावीसु पुक्खरिणीसु जाव विलपंतीसु वहूई उप्पलाइं जाव सहस्सपत्ताई सयसहस्सपत्ताई उसहकूडप्पभाइं उसहकूडवण्णाई' इति । की है तथा कुछ कम एक कोश की इसकी ऊँचाई है तात्पर्य इसका ऐमा है कि दो हजार धनुष का एक कोश होता हैं यहां जो इसकी ऊँचाई कुछ कम एक कोश की कहो गई है सो उस दो हजार धनुष में से ५६० कम विवक्षित हुए हैं। इस तरह इसकी ऊँचाई १ एक हजार ४४० चारसो चालोस धनुष की होती है ऐसा जानना चाहिये, “अट्ठो तहेव" ऋषभक्ट ऐसा नाम इसका साथक है जीवाभिगम सूत्र में जैसे यमकादिक पर्वतों के नामकी सार्थकता प्रकट की गई है वैसे ही यहां पर भी इसके नाम की सार्थकता प्रकट करलेनी चाहिये यही बात “उप्पलाणि पउमाणि जाव उसभे य एत्थ देवे महिड्ढिए" इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की गई है अर्थात् जब श्रीगौ , स्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा कि हे भदन्त ! “से केणटेणं एवं वुच्चइ उपहकूडपव्वए !' इस ऋषभकूट पर्वत को ऋषभ क्ट इस नाम से आपने क्यों कहा है ? तब प्रभुश्री ने इसके उत्तर में इस प्रकार कहा है "गोयमा ! उसहक्डपव्वए खुढासु खुट्ठियासु वावीसु पुक्खरिणीसु जाव विलपंतीसु बहुइं उप्पलाइं जाव सहस्सपत्ताई सयसहस्सपत्ताइं उसहकूडप्पभाई उसहकूड તાત્પર્ય આમ છે કે બે હજાર ધનુષ બરાબર એક ગાઉ હોય છે. અહીં જે આની ઊંચાઈ કંઈકકમ એક કોશ જેટલી કહેવામાં આવી છે તે તે બે હજાર ધનુષમાંથી ૫૬૦ કમ વિવક્ષિત છે. આ પ્રમાણે આની ઊંચાઈ ૧ હજાર ૪૪૦ ધનુષ જેટલી હોય છે. એવું नये "अट्ठो तहेव" ऋषभट नाम सानु यथाथ ॥ छे. वाभिगमसूत्रमारम યમકાદિક પર્વતોના નામની સાર્થકતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. તેવી જ અહી આના નામ नी साथ ४ता ४ सवीनस मे४ पात "उप्पलाणि पउमाणि जाव उसमेय एत्थ देवे महिइढिप" सूत्र५४ 43 2 ४२वामां आवी छ. मेट यारे गौतम प्रभु श्री२ मा 1 प्रश्रय मह-1! “से केणट्टेणं एवं बुच्चा ऊसहकूड पव्वर" ? ! *सयूट ५त ने पसळूट नाम थी तभे म समाधित श २। छ।! त्यारे प्रभु सेना उत्तरमा म प्रमाणे ४ ३ 'गोयमा ! उसहकूडपबए खुडासु खुडियासु बावोसु पुक्खरिणीसु जाव बिलपंतीसु बहूई उप्पलाई जाव सहस्तपत्ताई सयस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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