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________________ प्रकाशिका टीका सू. १९ उत्तरार्द्धभरते ऋषभकूटपर्वतनिरूपणम् जाव पडिरूवे' अच्छश्लक्ष्णो यावत्प्रतिरूपः । अच्छादि प्रतिरूपान्तपदानां संग्रहोऽथेश्च पूर्ववद् बोध्य इति । तथा 'से णं' सः ऋषभकूटपर्वतः खलु 'एगाए पउमवर वेइयाए' एकया पद्मवरवेदिकया 'तहेव' तथैव-सिद्धायतनकूटवदेव वर्णनीयः, तद्वर्णकवाक्यं किम्पर्यन्तं संग्राह्यमिति जिज्ञासायामाह-'जाव भवणं' यावद् भवनम् ऋषभकूटाधिपते ऋषभनामकदेवस्य भवनवर्णनपर्यन्तं संग्राह्यम् , तथाहि-एकेन च वनषण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः, ऋषभकूटस्य खलु उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्ता, स यथा नामकः आलिङ्गपुष्करमिति वा यावदू व्यन्तरा यावद् विहरंति, तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागम्य बहुमध्यदेशभागे महदेकं भवनं प्रज्ञप्तमिति । एतदयाख्या भवणवणेनं च चतुर्दशसूत्रतो बोध्यम् । अथ भवनमानमाह-कोसं' इत्यादि । तद्भवनं 'कोसं आयामेणं' क्रोशम् आया मेन दैध्येण 'अद्धकोसं' अर्द्धक्रोशं-क्रोशस्यार्द्ध 'विक्खम्भेणं'-विष्कम्भेण विस्तारण "से णं एगाए पउमवर वेइयाए तहेव जाव भवणं कोसं आयामेणं अद्धकोसं विखंभेणं दे सूर्ण कोर्स उडे उच्चत्तेणं अट्ठो तहेव" यह ऋषभकूट पर्वत चारों ओर से एक पद्मवर वेदिका से परिवेष्टित हैं । इसका और सर्व विशेष वर्णन सिद्धायतन क्ट के जैसा ही है तथाच वह ऋषभकूट पर्वत एक वनषण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है । इस ऋषभकूट पर्वत की ऊप र की भूमि बहुसमरमणीय है जैसा बहुसम मृदङ्ग का मुखपुट होता है ऐसा ही बहुसम उस पर्वत का ऊपर का भूमिभाग हैं, यावत् यहां अनेक प्रकारके व्यन्तर देव और देवियां यावत् आनन्द से अपने पूर्व कृत शुभकर्मों के शुभफलों कों भोगते हुए आनन्द से रहते हैं उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के मध्यभाग में एक विशाल ऋषभ नाम के देवका भवन कहा गया हैं इत्यादि रूप से कथन और भवन का वर्णन इसी सूत्र के १४ में सूत्र से जानलेना चाहीये इस भवन की लम्बाई एक कोश को है और चौडाई आधे कोश ५२७ थी भांडी प्रति३५ सुधाना विशेषथी युति छ. “से ण पगाए पउमवरवेझ्याए तहेव जाव भवण कोसं आयामेण अद्धकोस विक्खमेण देसूर्ण कोसं उडूढं उच्चत्तणं अट्ठो तहेव" पलटूट पर्वत यामेर मे प२ वहिाथी परिवष्टित छे. सानु विशेष વર્ણન સિદ્ધાયતન ફૂટના જેવું જ છે. તથા ચ–ષભકૂટ પર્વત એક વનખંડથી ચોમેર રાએલ છે. આ ઋષભકટપર્વતની ભૂમિ છે ઉપરિભાગ બસમરમણીય છે. મર્દ ગમખપટ વત આને ઉપરિભાગ બહુસમરમણીય છે. યાવતુ અહીં અનેક વ્યંતર દેવ અને દેવીઓ થાવત્ આનંદ પૂર્વક પિતાના પૂર્વકૃત શુભ કર્મોના શુભ ફળને ઊપભેગ કરતા સાનંદ નિવાસ કરે છે. તે બહુસમરમણીય ભૂમિભાગના મધ્યભાગ માં એક વિશાલ ઋષભ નામના દેવનું ભવન છે. ઈત્યાદિ રૂપમાં કથન અને ભવનનું વર્ણન આજ સૂત્રના ૧૪ મા સુત્રોમાંથી જાણી લેવું જોઈએ આ ભવનની લંબાઈ એક ગાઉ જેટલી છે. અને ચોડાઈ એ ગાઉ જેટલી છે. તેમજ કંઈક કમ એક ગાઉ જેટલી એની ઉચાઈ છે. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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