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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'वणसंडावि' वनषण्डा अपि 'पउमवरवेइया समगा' पद्मवरवेदिका-पद्मवरवेदिका तुल्या 'अयामेणं' आयामेन बोध्याः । 'वण्णओ' वर्णकः-वनषण्डवर्णकपरः सर्वोऽपि पद समूहोऽस्यैव पञ्चमसूत्रे टीकायां द्रष्टव्य इति । ___अथ तयोः श्रेण्योराकारभावप्रत्यवतारं पृच्छति- 'विज्जाहरसेढीणः' इत्यादि, 'विज्जाहर सेढीणं भंते! ' हे भदन्त ! विद्याधरश्रेण्यो:-विद्याधरश्रेणिद्वय सम्बन्धिन्योः 'भूमीणं केरिसए' भूम्योः कीदृशक:-कीदृशः ' आयारभावपडोयारे' आकारभावप्रत्यवतारः स्वरूपपर्यायप्रादुर्भावः ‘पण्णत्ते' प्रज्ञप्त: भगवानुसरयति 'गोयमा बहुसमरमणिज्जे' हे गौतम ! बहुसमरणीयः-अत्यन्तसमतलः अत एव रमणीयः 'भूमिभागेपण्णत्ते' भूमिभागः प्रज्ञप्तः, 'से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव' स यथा नामकः आलिङ्गपुष्कर इति वा यावत् ‘णाणाविहपंच वण्णेहिं मणीहिं तणेहि उवसोभिए' नानाविधि पञ्चवर्णैः मणिभिः-तृणैश्च उपशोभित: आलिङ्गपुष्कर इति वा इत्यारभ्य नानाविध पञ्चवर्णेणिभि स्तृणैचोपशोभित इत्यन्त पद सङ्ग्रहो राजप्रश्नीयसूत्रस्य पञ्चकी है. वनषण्ड का वर्णन करने वाला पदमम्ह इस सूत्रके पंचम सूत्र में कहा जा चुका है इसलिए सूत्रकार ने "वनसंडानि परमववरवेझ्या ममगा आयामेणं वण्णओ" ऐसा यह सूत्र कहा है। "विज्जाहरसेढीण भंते ! भूमिण केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते" हे भदन्त विद्याधर श्रेणियों का आकारभाव प्रत्यवतार-स्वरूप कैमा कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते" हे गौतम विद्याधरश्रेणियों का भूमिभाग बहुसम-विलकुलसमतलवाला -अतएव. रमणीय कहा गया है । “से जहा नामए आलिंगपुक्खरेई वा जाव णाणाविह पंचवण्णेहिं मणोहिं तणेहिं उवसोभिए" वह ऐसा बहुसम है कि जैसा मृदंग का मुख पुट बहुसभ होता है, इत्यादि रूप से जैसा वर्णन भूमिभाग का यावत् वह नाना प्रकार के पांच वर्णीवाले मणियों से एवं तृणों से उपशोभित है" यहां तक के पद सम्हों द्वारा किया गया है वैसा ही वह सब वर्णन इसके सम्बन्ध में यहां पर भी कर लेना चाहिये' यह सव वर्णन राजप्रश्रीय सूत्र के १५ वे सूत्र से लेकर १९ वे सूत्रतक करने में છે. આ ગ્રંથના પંચમ સૂત્રમાં એ વનખંડેનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે. એથી જ સૂત્રકારે “वनसंडाव पउमघर वेइया समगा आयामेण वण्णओ" मा प्रमाणे युं छे. 'विज्जाहर सेढीण भंते ! भूमीण केरिसए आयार भाव पडोयारे पण्णत्ते"महत। વિદ્યાધર શ્રેણી ઓને આકારાવ પ્રર્વતાર-સ્વરૂપ વિષે શું કહ્યું છે. જે એના જવાબમાં प्रभु ४३ छ. गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते" गौतम ! (१धाधर श्रेणी सानो भूमिकामसम-से हम सम-मेथी रमणीय छे. “से जहा नामए आलिंग पुक्ख रेइ वा जाव णाणाविह पंचवण्णेहिं मणीहि तणेहिं उपसोभिए" ते मृगना भुपत ए. સમ છે. ઈત્યાદિ રૂપમાં જેવું વર્ણન “યાવત્ તે અનેક જાતના પંચવર્ષોથી યુક્ત મણિઓ તેમજ તૃથી ઉપશાભિત છે. “અહીં સુધી તે પદ સમૂહો વડે ભૂમિભાગનું વર્ણન પહેલાં - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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