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________________ कमसे कम ३०० वर्ष पहले की लिखी हुई होगी * और दूसरी पं० उदयलालजी कालीवाल के पास है और जिसे पं० अमोलकचन्दजी उड़ेसरीयने वि० सं० १९६४ में महासभाके सरस्वतीभंडारकी किसी प्राचीन प्रतिपरसे लिखा था । इस मेंसे पहली प्रति प्रायः शुद्ध है I ३- भाव- त्रिभङ्गी और ४ - आस्रव - त्रिभङ्गी । इन दोनों ही ग्रन्थों के कर्त्ता एक आचार्य हैं और उनका नाम श्रुतमुनि है । पिछले ग्रन्थकी अन्तिम गाथा में ग्रन्थकारने कामदेव के प्रभावको नष्ट करनेवाले और शिष्यजनों द्वारा पूजित बालचन्द्र मुनिका ' जयकार' किया है । इससे मालूम होता है कि बालचन्द्र उनके पूज्य पुरुषों में थे । परन्तु वे कौन थे, इसका निश्चय इन मुद्रित ग्रन्थोंसे नहीं हो सकता । तलाश करनेसे सुहृदर बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तारसे मालूम हुआ कि आराके जैन सिद्धान्तभवन में भावत्रिभंगीकी एक ताड़पत्र पर लिखी हुई प्राचीन प्रति है और उसमें आगे लिखी हुई सात गाथायें इस मुद्रित प्रतिसे अधिक हैं । इन गाथाओंसे यह तो निश्चित हो ही जाता है कि पूर्वोक्त बालचन्द्र मुनि श्रुतमुनिके अणुव्रतदीक्षागुरु थे, साथ ही और भी कई विद्वानोंका इनमें उल्लेख है जिनसे ग्रन्थकर्ता के समयनिर्णय में बहुत कुछ सहायता मिलती है । वे गाथायें ये हैं : "अणुवदगुरुबालेंदु महत्वदे अभयचंदसिद्धंति । सत्थेऽमय सूरि पहाचंदा खलु सुयमुणिस्स गुरू ॥ ११७ ॥ * इस प्रतिके अन्त में लिखा है- आ० श्रीललीत चंद्र तत सीस्य व्र० कीका ॥ छ ॥ व्र० शिवदास तत्सिस्य पं० वीरभाणपठनार्थं । " ऊपर जो प्राकृत भावसंग्रहकी लेखक-प्रशास्ति दी है वह सं० १६२७ की लिखी हुई है और उस समय ललित चन्दके शिस्य चन्द्रकीर्ति वर्तमान थे । अर्थात् पूर्वोक्त प्रतिसे २५-३० वर्ष बाद यह प्रति लिखी गई होगी और इसी लिए हम इसे लगभग ३०० वर्ष पहलेकी समझते हैं । 66 + चौपाटी के स्वर्गीयसेठ माणिकचन्दजीके सरस्वती भण्डार के 'प्रशस्ति संग्रह ' नामक राजिस्टर में 'भावत्रिभंगी' की दो प्रतियोंके नोट लिये हुए हैं, परन्तु उनमें भी इन प्रशस्तिकी गाथाओंका अभाव है । लेखकोंकी कृपासे सैकड़ों प्रथोंकी प्रशस्तियाँ इसी तरह लुप्तप्राय हो चुकी हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003153
Book TitleBhav Sangrahadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages328
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size10 MB
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