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२-भाव-संग्रह ( संस्कृत )। इसके कर्ता पं० वामदेव हैं। ग्रन्थप्रशस्तिसे मालूम होता है कि ये मूलसंघी आचार्य लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य थे और नैगम नामक कुलमें उत्पन्न हुए थे । निग. म कायस्थ जातिका एक भेद है । आश्चर्य नहीं जो पं० वामदेवजी कायस्थ ही हों। दिगम्बरसम्प्रदायमें महाकवि हरिचन्द्र, दयासुन्दर, आदि और भी अनेक विद्वान् कायस्थजातीय हो चुके हैं। __ लक्ष्मीचन्द्र नामके अनेक आचार्य हो चुके हैं। उनमेंसे प० वामदेवके गुरु त्रैलोक्यकीर्तिके शिष्य और विनयचन्द्र के प्रशिष्य थे । ग्रन्थमें उसकी रचनाका समय नहीं लिखा है, इस लिए पं० वामदेवका निश्चित समय तो नहीं बतलाया जा सकता है; परन्तु अनुमानतः वे विक्रमकी पन्द्रहवीं या सोलहवीं शताब्दिके विद्वान् जान पड़ते हैं। उन्होंने एक जगह (पृ. १९६ में) 'उक्तंच जिनसंहितायां' लिख कर एक श्लोकाधं उद्धृत किया है। मालूम नहीं, यह कौनसी जिनसंहिता है। यदि भट्टारक एकसन्धिकी जिनसंहिता है-जिसका रचनाकाल विक्रमकी चौदहवीं शताब्दि है-तो यह स्पष्ट है कि भावसंग्रह इसके पीछे किसी समय बना है। ___ स्व. बाबा दुलीचन्दजीकी संस्कृत-प्रन्थसूचीमें प० वामदेवजीके बनाये हुए प्रतिष्ठासूक्तसंग्रह, तत्त्वार्थसार, त्रिलोकदीपिका, श्रुतज्ञानोद्यापन, त्रिलोकसारपूजा और मन्दिरसंस्कारपूजा नामक छः ग्रन्थों के नाम दिये हैं । यदि इन ग्रन्थोंमेंसे एक दो ग्रन्थ ही मिल जावेंगे तो ग्रन्थकीका समय बहुत कुछ निर्णीत हो जायगा। ___ यह भावसंग्रह प्रायःप्राकृत भावसंग्रहका ही संस्कृत अनुवाद है। दोनों ग्रन्थों को आमने सामने रखकर पढ़नेसे यह बात अच्छी तरह समझमें आ जाती है। यद्यपि पं० वामदेवजीने इसमें जगह जगह अनेक परिवर्तन, परिवर्धन और संशोधन आदि किये हैं। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि यह स्वतंत्र ग्रन्थ है । शिष्टताकी दृष्टिसे अच्छा होता, यदि पं० वामदेवजीने अपने ग्रन्थमें यह बात स्वीकार कर ली होती।
इस ग्रन्थका संशोधन दो प्रतियों के अधारसे किया गया है, जि पमें से एक तो चोपाटीके स्वर्गीय सेठ माणिकचन्दजीके सरस्वतीभण्डारमें है-जो
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