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________________ ३३ पण्डित मेहा या मीहाका दूसरा नाम पं० मेधावी था । ये वही मेधावी हैं जिन्होंने धर्मसंग्रहश्रावकाचार नामका ग्रन्थ बनाया है और जो मुद्रित हो चुका है। पं० मीहा अपनी गुरुपरम्परा के विषय में कहते हैं कि नन्दिसंघ, बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छ के भट्टारक पद्मनन्दिके शिष्य भ० शुभचन्द्र और उनके शिष्य भ० जिनचन्द्र मेरे गुरु थे। जिनचन्द्र के दो शिष्य और थे - एक रत्ननन्दि और दूसरे विमलकीर्ति । यह पुस्तकदाताकी प्रशस्ति पं० मेधावीकी ही लिखी हुई मालूम होती है । उन्होंने त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति, मूलाचारकी वसुनन्दिवृत्ति आदि ग्रन्थोंमें और भी कई बड़ी बड़ी प्रशस्तियाँ लिखी हैं । वसुनन्दिवृत्तिकी प्रशस्ति वि० सं० १५१६ की और त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति की १५१९ की लिखी हुई है । धर्मसंग्रहश्रावकाचार उन्होंने कार्तिक वदी १३ सं० १५४१ को समाप्त किया है । नीतिवाक्यामृतटीकाकी यह प्रशस्ति धर्मसंग्रहके समाप्त होनेके कोई आठ दिन बाद ही लिखी गई है । धर्मसंग्रहमें पं० मेधावीने अपने पिताका नाम उद्धरण, माताका भीषही और पुत्रका जिनदास लिखा है । वे अग्रवाल जाति के थे और अपने समय के एक प्रसिद्ध विद्वान् थे । उन्होंने दक्षिणके पुस्तकगच्छके आचार्य श्रुतमुनिसे अन्य कई विद्वानोंके साथ अष्टसहस्त्री ( विद्यानन्दस्वामीकृत ) पढ़ी थी । जान पड़ता है कि उस समय हिसार में जैन विद्वानोंका अच्छा समूह था । भट्टारकों की गद्दी भी शायद वहाँ पर थी । यह टीकापुस्तक हिसार से आमेर के पुस्तक भंडार में कब और कैसी पहुँची, इसका कोई पता नहीं है । आमेरके भंडारमेंसे सं० १९६४ में भट्टारक महेन्द्रकीर्ति द्वारा यह बाहर निकाली गई और उसके बाद जयपुर निवासी पं० इन्द्रलालजी शास्त्री प्रयत्न से हमको इसकी प्राप्ति हुई । इसके लिए हम भट्टारकजी और शास्त्रीजी दोनोंके कृतज्ञ हैं । इस प्रतिमें १३३ पत्र हैं और प्रत्येक पृष्ठमें प्रायः २० पंक्तियाँ हैं । प्रत्येक पत्रकी लम्बाई ११॥ इंच और चौड़ाई ५॥ इंचसे कुछ कम है । ५१ से ७५ तक के पृष्ठ मौजूद नहीं हैं । बम्बई । पौषशुक्ला तृतीया १९७९ वि० । * देखो जैनहितैषी भाग १५, अंक ३-४ | Jain Education International For Private & Personal Use Only निवेदकनाथूराम प्रेमी | www.jainelibrary.org
SR No.003150
Book TitleNiti Vakyamrutam Satikam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorPannalal Soni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Ethics, G000, & G999
File Size16 MB
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