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________________ ३२ किया करते थे और इस पुण्यकृत्य से अपने ज्ञानावरणीय कर्मका निवारण करते थे । - बहुतों ने तो इस कार्य के लिए लेखनशालायें ही खोल रक्खी थीं जिनमें निरन्तर प्राचीन अर्वाचीन ग्रन्थोंकी प्रतियाँ होती रहती थीं । यही कारण है जो उस - समय मुद्रणकला न रहने पर भी ग्रन्थोंका यथेष्ट प्रचार रहता था और ज्ञानका प्रकाश मन्द नहीं होने पाता था । स्त्रियोंका इस ओर और भी अधिक लक्ष्य था । हमने ऐसे पचासों हस्तलिखित ग्रन्थ देखे हैं जो धर्मप्राणा स्त्रियोंके द्वारा ही दान किये गये हैं । इस शास्त्रदान प्रथाको उत्तेजित करनेके लिए उस समय के विद्वान् प्रायः प्रत्येक दान किये हुए ग्रन्थके अन्तमें दाताकी प्रशस्ति लिख दिया करते थे जिसमें उसका और उसके कुटुम्बका गुणकीर्तन रहा करता था । हमारे प्राचीन पुस्तक भंडारों के ग्रन्थोंमेंसे इस तरहकी हजारों प्रशस्तियाँ संग्रह की जा सकती हैं जिनसे इतिहास-सम्पादनके कार्य में बहुत कुछ सहायता मिल सकती है । नीतिवाक्यामृतटीकाकी वह प्रति भी जिसके आधारसे यह ग्रन्थ मुद्रित हुआ है इसी प्रकार एक धनी गृहस्थकी धर्मप्राणा स्त्रीके द्वारा दान की गई थी । ग्रन्थके अन्तमें जो प्रशस्ति दी हुई है, उससे मालूम होता है कि कार्तिक सुदी ५ विक्रमसंवत् १५४१ को, हिसार नगरके चन्दप्रभचैत्यालय में, सुलतान बहलोल ( लोदी ) के राज्यकाल में, यह प्रति दान की गई थी । arry या नागौर के रहनेवाले खण्डेलवालवंशीय क्षेत्रपालगोत्रीय संघपति कामाकी भार्या साध्वी कमलश्रीने हिसारनिवासी पं० मेहा या महाको इसे भक्तिभावपूर्वक भेट किया था । कल्हू नामक संघपतिकी भार्याका नाम राणी था । उसके चार पुत्र थेहंवा, धीरा, कामा और सुरपति । इनमें से तीसरे पुत्र संघपति कामाकी भार्या उक्त साध्वी कमलश्री थी जिसने ग्रन्थ दान किया था । कमलश्रीसे भीवा और 'वच्छूक नामके दो पुत्र थे । इनमें से भीवाकी भार्या भिउंसिरिके गुरुदास नामक पुत्र था जिसकी गुणश्री भार्याके गर्भ से रणमल्ल और जट्ट नामके दो पुत्र थे। दूसरे वच्छुककी भार्या वउसिरिके रावणदास पुत्र था जिसकी स्त्रीका नाम सरस्वती था । पाठक देखें कि यह परिवार कितना बड़ा और कितना दीर्घजीवी था । कमली के सामने उसके प्रपौत्र तक मौजूद थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003150
Book TitleNiti Vakyamrutam Satikam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorPannalal Soni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Ethics, G000, & G999
File Size16 MB
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