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________________ २५ १ –– टीकाकारने जो मनु, शुक्र और याज्ञवल्क्यके श्लोक उद्धृत किये हैं, वे मनुस्मृति, शुक्रनीति और याज्ञवल्क्यस्मृति में नहीं है । यथा पृष्ठ १६५ की टिप्पणी--" श्लोकोऽयं मनुस्मृतौ तु नास्ति । टीकाकर्त्रा स्वदौष्टयेन ग्रन्थकर्तृपराभवाभिप्रायेण बहवः श्लोकाः स्वयं विरचय्य तत्र तत्र स्थलेषु विनिवेशिताः । " अर्थात् यह श्लोक मनुस्मृति में तो नहीं है, टीकाकारने अपनी दुष्टतावश मूलकर्ताको नीचा दिखाने के अभिप्राय से स्वयं ही बहुतसे श्लोक बनाकर जगह जगह घुसेड़ दिये हैं । २ -- इस टीकाकारने —- जो कि निश्चयपूर्वक अजैन है -- बहुतसे सूत्र अपने मत के अनुसार स्वयं बनाकर जोड़ दिये हैं । यथा पृष्ठ ४९ की टिप्पणी- " अस्य ग्रन्थस्य कर्त्ता कश्चिदजैनविद्वानस्तीति निश्चितं । अतस्तेन स्वमतानुसारेण वहूनि सूत्राणि विरचय्य संयोजितानि । तानि च तत्र तत्र निवेदयिष्यामः । 1 " पहले आक्षेपके सम्बन्धमें हमारा निवेदन है कि सोनीजी वैदिक धर्म के साहित्य और उसके इतिहास से सर्वथा अनभिज्ञ हैं; फिर भी उनके साहसकी प्रशंसा करनी चाहिए कि उन्होंने मनु या शुक्र के नाम के किसी एक ग्रन्थके किसी एक संस्करणको देखकर ही अपनी अद्भुत राय दे डाली है । खेद है कि उन्हें एक प्राचीन विद्वानके विषय में - केवल इतने ही कारणसे कि वह जैन नहीं है- इतनी बड़ी एकतरफा डिक्री जारी कर देनेमें जरा भी झिझक नहीं हुई ! सोनीजीने सारी टीकामें मनुके नामके पाँच श्लोकोंपर, याज्ञवल्क्य के एक श्लोकपर और शुक at कोंपर आपने नोट दिये हैं कि ये श्लोक उक्त आचार्यों के ग्रन्थोंमें नहीं हैं। सचमुच ही उपलब्ध मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति और शुक्रनीति में उद्धृत श्लोकों का पता नहीं चलता । परन्तु जैसा कि सोनीजी समझते हैं, इसका कारण टीकाकारकी दुष्टता या मूलकर्ताको नीचा दिखानेकी प्रवृत्ति नहीं है । सोनीजीको जानना चाहिए कि हिन्दुओं के धर्मशास्त्रों में समय समय पर बहुत कुछ परिवर्तन होते रहे हैं । अपने निर्माणसमय में वे जिस रूप में थे, इस समय उस रूप में नहीं मिलते हैं । उनके संक्षिप्त संस्करण भी हुए हैं और प्राचीन ग्रन्थोंके नष्ट हो जाने से उनके नामसे दूसरोंने भी उसी नामके ग्रन्थ बना दिये हैं। इसके सिवाय एक स्थानकी प्रतिके पाठोंसे दूसरे स्थानोंकी प्रतियों के पाठ नहीं मिलते । इस विषय में प्राचीन साहित्य के खोजियोंने बहुत कुछ छानबीन की है और इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003150
Book TitleNiti Vakyamrutam Satikam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorPannalal Soni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Ethics, G000, & G999
File Size16 MB
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