________________
२१
नामके तीन, अरिकेसरी नामके दो और नारसिंह नामके दो राजा हैं । अनेक राजवंशों में प्रायः यही परिपाटी देखी जाती है कि पितामह और पौत्र या प्रपितामह और प्रपौत्र के नाम एकसे रक्खे जाते थे, जैसा कि उक्त वंशावली से प्रकट होता है । अतएव हमारा अनुमान है कि इस वंशावलीके अन्तिम राजा अरि-केसरी (पम्प के आश्रयदाता) के पुत्रका नाम बद्दिगx ही होगा जो कि लेखकों के प्रमाद'' या 'वाग' बन गया है ।
'गंगाधरा' स्थान के विषय में हम कुछ पता न लगा सके जो कि बद्दिकी राजधानी थी और जहाँ यशस्तिलककी रचना समाप्त हुई है । संभवतः यह स्थान धारवाड़ के ही आसपास कहीं होगा ।
श्रीसोमदेवसूरिने नीतिवाक्यामृतकी रचना कब और कहाँ पर की थी, इस बात का विचार करते हुए हमारी दृष्टि उसकी संस्कृत टीकाके निम्न लिखित वाक्यों पर जाती हैः
--:
" अत्र तावदखिलभूपालमौलिलालित चरणयुगलेन रघुवंशावस्थायिपराक्रमपालितकस्य (कृत्स्न) कर्णकुब्जेन महाराजश्री महेन्द्र देवेन पूर्वाचार्य कृतार्थशास्त्रदुरवबोधग्रन्थगौरव खिन्नमानसेन सुबोधललित लघुनीतिवाक्यामृतरच नासु प्रवर्तितः सकलपारिषदत्वान्नीति प्रन्थस्थ नानादर्शनप्रतिबद्धश्रोतॄणां तत्तदभीष्टश्रीकण्ठाच्युतविरंच्यर्हतां वाचनिकनमस्कृतिसूचनं तथा स्वगुरोः सोमदेवस्य च प्रणामपूर्वकं शास्त्रस्य तत्कर्तृत्वं ख्यापयितुं सकलसत्त्वकृताभयप्रदानं मुनिचन्द्राभिधानः क्षपणकव्रतती नीतिवाक्यामृतकर्ता निर्विघ्नसिद्धिकरं.... श्लोकमेकं जगाद - " पृष्ठ २ ।
इसका अभिप्राय यह है कि कान्यकुब्जनरेश्वर महाराजा महेन्द्रदेवने पूर्वाचार्यकृत अर्थशास्त्र (कौटिलीय अर्थशास्त्र ? ) की दुर्बोधता और गुरुतासे खिन्न होकर ग्रन्थकर्ताको इस सुबोध, सुन्दर और लघु नीतिवाक्यामृतकी रचना करनेमें प्रवृत्त किया ।
कन्नौज के राजा महेन्द्रपालदेवका समय वि० संवत् ९६० से ९६४ तक निश्चित हुआ है । कर्पूरमंजरी और काव्यमीमांसा आदिके कर्त्ता सुप्रसिद्ध कवि राज
* दक्षिणके राष्ट्रकूटोंकी वंशावली में भी देखिए कि अमोघवर्ष नामके चार, कृष्ण या अकालवर्ष नामके तीन, गोविन्द नामके चार, इन्द्र नामके तीन और कर्क नामके तीन राजा लगभग २५० वर्षके बीच में ही हुए हैं ।
x श्रद्धेय पं० गौरीशंकर हीराचन्द ओझाने अपने ' सोलंकियोंके इतिहास' ( प्रथम भाग ) में लिखा है कि सोमदेवसूरिने अरिकेसरीके प्रथम पुत्रका नाम नहीं दिया है; परन्तु ऐसा उन्होंने यशस्तिलककी प्रशस्तिके अशुद्ध पाठके कारण समझ लिया है; वास्तव में नाम दिया है और वह ' वद्दिग' ही है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
}
www.jainelibrary.org