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न्तोंका खण्डन करके जैनसिद्धान्तकी उपादेयता प्रतिपादन की है; परन्तु इसके साथ ही वे इस सिद्धान्तके पक्के अनुयायी हैं कि 'युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।' उनकी यह नीति नहीं थी कि ज्ञानका मार्ग भी संकीर्ण कर दिया जाय और संसारके विशाल ज्ञान - भाण्डारका उपयोग करना छोड़ दिया जाय ।
समय और स्थान |
नीतिवाक्यामृत के अन्तकी प्रशस्ति में इस बातका कोई जिकर नहीं है कि वह कब और किस स्थान में रचा गया था; परन्तु यशस्तिलक चम्पूके अन्त में इन दोनों बातोंका उल्लेख है :
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शकनृपकालातीतसंवत्सरशतेष्वष्टस्वेकाशीत्यधिकेषु गतेषु अङ्कतः ( ८८१ ) सिद्धार्थसंवत्सरान्तर्गत चैत्रमास मदनत्रयोदश्यां पाण्ड्य - सिंहल - चोल - चेरमप्रभृतीन्महीपतीन्प्रसाध्य मेलपाटी प्रवर्ध - मानराज्यप्रभावे श्रीकृष्णराजदेवे सति तत्पादपद्मोपजीविनः समधिगतपञ्चमहाशब्दमहासामन्ताधिपतेश्चालुक्यकुलजन्मनः सामन्तचूडामणेः श्रीमदरिकेसरिणः प्रथमपुत्रस्य श्रीमद्वयेगराजस्य लक्ष्मीप्रवर्धमानवसुधारायां गङ्गाधाराया विनिर्मापितामिदं काव्यनिति । "
अर्थात् चैत्र सुदी १३ शकसंवत् ८८१ ( विक्रम संवत् १०३६ ) को जिस समय श्रीकृष्णराजदेव पाण्ड्य, सिंहल, चोल, चेर आदि राजाओं पर विजय प्राप्त करके मेलपाटी नामक राजधानी में राज्य करते थे और उनके चरणकमलो - पजीवो सामन्त बद्दिग - जो चालुक्यवंशीय अरिकेसरीके प्रथम पुत्र थेगंगाधाराका शासन करते थे, यह काव्य समाप्त हुआ ।
दक्षिणके इतिहाससे पता चलता है कि ये कृष्णराजदेव राष्ट्रकूट या राठौर वंशके महाराजा थे और इनका दूसरा नाम अकालवर्ष था । यह वही वंश है. जिसमें भगवज्जिनसेनके परमभक्त महाराजा अमोघवर्ष ( प्रथम ) उत्पन्न हुए
१ पाण्ड्य - वर्तमान में मद्रासका 'तिनेवली' । सिंहल - सिलोन या लंका । चोल = मदरासका कारोमण्डल | चेर- केरल, वर्तमान त्रावणकोर । २ मुद्रित ग्रन्थ में 'मेल्याटी' पाठ है । ३ मुद्रित : पुस्तक में 'श्रीमद्वागराजप्रवर्धमानपाठ है |
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