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________________ साहित्य-न्याय, व्याकरण, काव्य, नीति, दर्शन आदि सम्बन्धी उपलब्ध था, उस सबसे उनका परिचय था। केवल जैन ही नहीं, जैनेतर साहित्यसे भी वे अच्छी तरह परिचित थे । यशस्तिलकके चौथे आश्वासमें ( पृ०११३ )में उन्होंने लिखा है कि इन महाकवियोंके काव्योंमें नग्न क्षपणक या दिगम्बर साधुओंका उल्लेख क्यों आता है ? उनकी इतनी अधिक प्रसिद्धि क्यों है ?-उर्व, भारवि, भवभूति, भर्तृहरि, भर्तृमेण्ठ, कण्ठ, गुणाढ्य, व्यास, भास*, वोस, कालिदास ४, वाण +, मयूर, नारायण, कुमार, माघ और राजशेखर। इससे मालूम होता है कि वे पूर्वाक्त कवियों के काव्योंसे अवश्य परिचित होंगे। प्रथम आश्वासने ९० वें पृष्ठमें उन्होंने इन्द्र, चन्द्र, जैनेन्द्र, आपि.. शल और पाणिनिके व्याकरणोंका जिकर किया है। पूज्यपाद ( जैनेन्द्रके कर्ता ) और पाणिनिका उल्लेख और भी एक दो जगह हुआ है। गुरु, शुक्र, विशालाक्ष, परीक्षित, पराशर, भीम, भीष्म, भारद्वाज आदि नीतिशास्त्रप्रणेताओंका भी वे कई जगह स्मरण करते हैं। कौटिलीय अर्थशास्त्रसे तो वे अच्छी तरह परिचित हैं ही। हमारे एक पण्डित मित्रके कथनानुसार नीतिवाक्यामृतमें सौ सवा सौ के लगभग ऐसे शब्द हैं जिनका अर्थ वर्तमान कोशों में नहीं मिलता। अर्थशास्त्रको अध्येता ही उन्हें समझ सकता है। अश्वविद्या, गजविद्या, रत्नपरीक्षा, कामशास्त्र, वैद्यक आदि * भास महाकविका 'पेया सुरा प्रियतमामुखमीक्षणीयं' आदि पद्य भी पाँचवें आश्वासमें ( पृ०२५० )में उद्धृत है । x रघुवंशका भी एक जगह ( आश्वास ४, पृ०१९४ ) उल्लेख है । + वाण महाकविका एक जगह और भी (आ०४,पृ०१०१) उल्लेख है और लिखा है कि उन्होंने शिकारकी निन्दा की है। १-" पूज्यपाद इव शब्दैतिह्येषु...पणिपुत्र इव पदप्रयोगेषु"---यश० आ० २. पृ० २३६ । २, ३, ४, ५, ६-" रोमपाद इव गजविद्यासु रैवत इव हयनयेषु. शुकनाश इव रत्नपरीक्षासु, दत्तक इव कन्तुसिद्धान्तेषु "~आ. ४, पृ० २३१-२३७। 'दत्तक' कामशास्त्रके प्राचीन आचार्य हैं । वात्स्यायनने इनका उल्लेख किया है। 'चारायण' भी कामशास्त्रके आचार्य हैं । इनका मत यशस्तिलकके तीसरे आश्वासके ५०९ पृष्ठमें चरकके साथ प्रकट किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003150
Book TitleNiti Vakyamrutam Satikam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorPannalal Soni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Ethics, G000, & G999
File Size16 MB
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