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सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में
है तो प्रतिपादन का भेद क्यों ? यदि मृगमरीचिका है तो उसके लिए इतना प्रयत्न क्यों ? इस प्रश्न ने बहुत लोगों को असत्य की दिशा में ढकेल दिया जिनके चरण सत्य की दिशा में बढ़ने को तत्पर थे । महावीर ने इस प्रश्न को गम्भीरता से देखा । सत्य की दिशा में बढ़ने वाले पैरों को लड़खड़ाते हुए देखा और देखा कि सत्यांश सत्य पर आवरण डाल रहा है, असत्य को उजागर कर रहा है। उन्होंने इस प्रश्न को सुलझाने के लिए अनेकांत की स्थापना की और यह घोषणा की कि जो प्रतिपादन किया जाता है वह सत्य नहीं है, सत्यांश है । सत्य का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता । प्रतिपादन सत्यांश का ही किया जा सकता है । मैंने सत्य का साक्षात् किया है, किन्तु मैं उसका प्रतिपादन नहीं कर सकता। दूसरा कोई सत्य का साक्षात् कर सकता है किन्तु उसका प्रतिपादन नहीं कर सकता । वह अवक्तव्य सत्यांश ही हो सकता है । मैं एक सत्यांश का प्रतिपादन करता हूं, दूसरा दूसरे सत्यांश का प्रतिपादन करता है । दोनों के सत्यांश भिन्न हो सकते हैं और होते हैं । यह सत्य का भेद नहीं । यह सत्य का विभाजन नहीं। वह अपेक्षा भेद से प्रतिपादन सत्यांश का भेद हैं। मैं किसी एक सत्यांश का प्रतिपादन अपेक्षित समझता हूं तो दूसरा किसी दूसरे सत्यांश का प्रतिपादन अपेक्षित समझता है । यह वाणी की क्षमता का भेद हैं ।
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शब्द में इतनी ही क्षमता है कि वह एक क्षण में सत्य के अनन्त पर्यायों (अंशों) में से एक ही पर्याय का प्रतिपादन करता है और समूची भाषा सत्य के कुछेक पर्यायों का प्रतिपादन कर सकती है। किसी भी भाषा ने सत्य के हजारों पर्यायों से अधिक पर्यायों को अभिव्यक्ति नहीं दी हैं और भविष्य में भी नहीं दे पाएगी। कोई भी मनुष्य अपने जीवन में सत्य के हजारों पर्यायों से अधिक पर्यायों को अभिव्यक्ति नहीं दे पाता। फिर इस तर्क का क्या अर्थ है कि यह सर्वज्ञ का वचन है। यह सत्य के साक्षात् द्रष्टा का वचन है। क्या सर्वज्ञ या सत्य का साक्षात द्रष्टा सम्पूर्ण सत्य को कह सकता है ? यदि कह सके तो सत्य अनन्त नहीं हो सकता, शाश्वत नहीं हो सकता । और यदि नहीं कह सके तो वह सत्यांश ही कह सकेगा। सत्यांश को पूर्ण सत्य मानकर हम सत्य की खोज के द्वार को बन्द नहीं कर सकते । अनेकांत के सिद्धांत ने सत्य की खोज के द्वार को सदा के लिए, सबके लिए खोल दिया । उसका प्रतिपाद्य है - सत्य की खोज मैं भी कर सकता हूं, तुम भी कर सकते हो । उसका साक्षात्कार भी हम सब कर सकते हैं । हमारे पूर्वजों ने सत्य की खोज की, उसका साक्षात् किया और प्रतिपादन भी । सत्य की खोज और साक्षात्कार उनका अपना विषय है और प्रतिपादन हमारे लिए है। हम उनके प्रतिपादन को ही मानकर चलें,
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