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सत्य की खोज : विसंवादिता का अवरोध
सत्य शाश्वत है। सत्यदर्शी उसका प्रवर्तन नहीं करता, व्याख्या करता है। भगवान् महावीर सत्य के प्रवर्तक नहीं किन्तु व्याख्याता थे। उन्होंने दीर्घ तपस्या के द्वारा सत्य का साक्षात्कार किया और भाषा की सीमा में उसे अनावृत किया। उन्होंने देखा, सत्य का साक्षात्कार किया जा सकता है, उसकी समग्रता का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। प्रतिपादन सत्यांश का ही किया जा सकता है । ज्ञान अपने लिए होता है और प्रतिपादन दूसरों के लिए। ज्ञान अपने-आप में प्रत्यक्ष होता है। ज्ञेय को जानते समय वह प्रत्यक्ष भी होता है और परोक्ष भी होता है। वह अपने-आप में न प्रमाण होता है और न अप्रमाण । ज्ञेय को जानते समय वह प्रमाण भी होता है
और अप्रमाण भी होता है । संशयित और विपर्यस्त ज्ञान अप्रमाण होता है । निर्णयात्मक ज्ञान प्रमाण होता है । ज्ञान-विकास की तरतमता, स्वार्थ और परार्थ, प्रत्यक्ष और परोक्ष, प्रामाण्य और अप्रामाण्य-ज्ञान के इन विविध रूपों ने सत्य को विविध रूपों में विभक्त कर दिया। सत्य सत्य ही है। वह मेरे लिए एक प्रकार का और दूसरे के लिए दूसरे प्रकार का नहीं होता। फिर भी यह हो रहा है कि मैं जिसे सत्य मानता हूं दूसरा उसे असत्य मानता है। दूसरा जिसे सत्य मानता है मैं उसे असत्य मानता हूं । सत्य का यह विवादास्पद रूप मनुष्य को असत्य की ओर ले जाता है। महावीर
और बुद्ध भारत में हुए, लाओत्से और कन्फ्यूशियस चीन में। देश भिन्न हैं किन्तु काल भिन्न नहीं है। चारों सम-सामयिक हैं।
व्यक्ति देशकाल से अविच्छिन्न हो सकता है किन्तु सत्य देशकाल से अविच्छिन्न नहीं होता। वह हर देश और हर काल में एक रूप ही होता है। किन्तु महावीर को .. पढ़ने वाला एक प्रकार के सत्य को पकड़ रहा है। बुद्ध को पढ़ने वाला दूसरे प्रकार
के सत्य को पकड़ रहा है । लाओत्से को पढ़ने वाला तीसरे प्रकार के और कन्फ्यूशियस को पढ़ने वाला चौथे प्रकार के सत्य को पकड़ रहा है। सत्य एकरूप, प्रतिपादन अनेक रूप और पकड़ उससे बहुत दूर। यह स्थिति एक सत्य-शोधक के मन में यह प्रश्न पैदा करती है-क्या सत्य वास्तविक है या मृगमरीचिका? यदि वास्तविक .
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