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आत्मा और परमात्मा
'संपिक्खए अप्पगमप्पएणं' - आत्मा से आत्मा को देखो, परमात्मा बन जाओगे । म राजर्षि प्रव्रजित हो रहे थे। एक बूढ़ा ब्राह्मण आकर बोला- 'राजर्षि ! तुम प्रव्रजित हो रहे हो, राज्य को छोड़ संन्यासी बन रहे हो ? क्या देख नहीं रहे हो कि हमारी मिथिला, तुम्हारा अन्तःपुर, तुम्हारा राजभवन ये सारे के सारे धांय धांय जल रहे हैं। इनको आग लगी है। जरा आंख उठाकर देखो तो सही कि यह क्या हो रहा है ?'
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राजर्षि ने शान्तभाव से कहा- 'ब्राह्मण ! मैं देख रहा हूं । मेरी मिथिला नहीं जल रही है। मेरी अन्तःपुर और मेरा राजभवन भी नहीं जल रहा है। मैं जहां हूं वहां कुछ भी नहीं जल रहा है। जहां कोई आग नहीं हैं, कोई चिनगारी नहीं है और कोई चिनगारी डालने वाला भी नहीं है, जहां कोई जलने वाला भी नहीं है और जलाने वाला भी नहीं है, मैं वहां हूं। मैं सुख से जी रहा हूं, सुख से रह रहा हूं । मेरी राजधानी जल नहीं सकती। मेरा प्रासाद जल नहीं सकता। मेरी सम्पदा को कोई नहीं जा सकता | मिथिला जल रही है, जले उसमें मेरा क्या ?'
राजर्षि के उत्तर ने ब्राह्मण को विस्मय में डाल दिया । मिथिला जल रही थी या नहीं जल रही थी, यह कोई महत्त्व की बात नहीं थी और वह सचमुच नहीं जल रही थी । यह एक कसौटी थी । कसौटी करने वाला था ब्राह्मण और वह कसौटी कर रहा था उस राजर्षि की जो घर छोड़कर जा रहा था। सब कुछ छोड़ रहा था । ब्राह्मण जानना चाहता था कि राजर्षि वास्तव में सब कुछ छोड़ कर जा रहा है या भावावेश में छोड़ने का बहाना कर रहा है । बहुत बार ऐसा होता है कि हम छोड़ने का बहाना करते हैं और छूटता कुछ भी नहीं । स्मृति का भार और अधिक सिर पर लद जाता है । छोड़ने की स्मृति सताने लगती है । तो क्या नमि राजर्षि सचमुच छोड़कर चला जा रहा है या स्मृति का भार ढोने जा रहा है ? वासना नहीं छूटती, अहं नहीं छूटता तो छोड़ने का बहाना मात्र होता है, वास्तव में कुछ भी नहीं छूटता । किन्तु राजर्षि सचमुच छोड़कर चले जा रहे थे। वे अपनी चेतना में लीन हो गये थे ।
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