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मनुष्य को स्वतन्त्रता का मूल्य
स्वाभाविक या पर-प्रेरित होती है । चेतन में स्वाभाविक क्रिया के साथ-साथ स्वतन्त्र क्रिया भी होती है। यंत्र की गति निर्धारित मार्ग पर होती है। उसमें इच्छा और संकल्प की शक्ति नहीं होती, इसलिए उसकी गति स्वतन्त्र नहीं होती।
मनुष्य चेतन है। उसमें इच्छा, संकल्प और विचार की शक्ति है, इसलिए वह स्वतंत्र क्रिया करता है। डंस स्काट्स ने भी इसी आधार पर मनुष्य की स्वतंत्रता का प्रतिपादन किया है। उन्होंने लिखा है-'हमारी स्वतंत्रता हमारे संकल्पों के कारण है। व्यक्ति धर्म के मार्ग को जानते हए भी अधर्म के पथ पर चल सकता है, यही उसकी स्वतंत्रता है।'
प्रगति का पहला चरण है संकल्प और दूसरा चरण है प्रयत्न । ये दोनों मनुष्य में सर्वाधिक विकसित होते हैं। इसलिए हमारे संसार की प्रगति का मुख्य सूत्रकार मनुष्य ही है । उसने आंतरिक जगत् में सुख-दुःख, सिद्धांत, कल्पना, तर्क और भावना की सृष्टि की है। उसने बाह्य जगत् में आवश्यकता, सुख-सुविधा और विलासिता के उपकरणों की सष्टि की है। युद्ध और शांति का सृजन मनुष्य ने ही किया है।
डार्विन ने यह स्थापना की-संघर्ष प्रकृति का एक नियम है । वह शाश्वत और सार्वत्रिक है। वह जीवन-संग्राम का मूल हेतु है । इस स्थापना का स्वर भारतीय चिन्तन में भी ‘जीवो जीवस्य जीवनम्' के रूप में मिलता है। डार्विन ने जगत् को संघर्ष के दृष्टिकोण से देखा। इसमें भी सत्यांश है। किन्तु यह पूर्ण सत्य नहीं है। महावीर ने जगत् को भिन्न दृष्टिकोण से देखा था। उन्होंने इस सिद्धांत की स्थापना की कि जीव-जगत् पारस्परिक सहयोग के आधार पर टिका हुआ है। मनुष्य में यदि संघर्ष का बीज है तो उसमें सहयोग का बीज क्यों नहीं हो सकता? यदि वह संघ, करने में स्वतन्त्र है तो वह सहयोग करने में स्वतन्त्र क्यों नहीं हो सकता? महावीर के सिद्धांत का सार है कि मनुष्य संघर्ष और सहयोग-दोनों के लिए स्वतन्त्र है किन्तु जीवन में शांति की प्रतिष्ठा के लिए वह अपनी स्वतन्त्रता को संघर्ष की दिशा से हटाकर सहयोग की दिशा में मोड़ दे। हमारे जीवन में संघर्ष के क्षण बहुत कम होते हैं, सहयोग के क्षण बहुत अधिक।
_महावीर ने मनुष्य की स्वतंत्रता को कुंठित नहीं किया। उन्होंने उसके दिशा-परिवर्तन का सूत्र दिया। वह सूत्र है-'मनुष्य अपनी स्वतन्त्रता का उपयोग श्रेय की दिशा में करे, हर बुराई को अच्छाई में बदल डाले।'
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