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________________ ३७ मनुष्य की स्वतन्त्रता का मूल्य क्रिया कर सकता है। गाली के प्रति गाली, क्रोध के प्रति क्रोध, अहं के प्रति अहं और प्रवाह के प्रति प्रवाह-यह प्रतिक्रिया का जीवन है। प्रतिक्रिया का जीवन जीने वाला कोई भी व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं हो सकता। चिड़िया जैसे अपने प्रतिबिम्ब पर चोंच मारती है, बच्चे ने अपनी परछाई को पकड़ने का प्रयत्न किया और सिंह अपने ही प्रतिबिम्ब के साथ लड़ता हुआ कुएं में गिर पड़ा-ये सब प्रतिक्रियाएं बाहरी दर्शन से घटित होती हैं । स्वतन्त्रता आंतरिक गुण है । जिसका अन्तः-करण आवेश' से मुक्त हो जाता है, वह समस्या का समाधान अपने भीतर खोजता है, क्रिया का जीवन जीता है और वह सही अर्थ में स्वतन्त्र होता है। वह गाली के प्रति मौन, क्रोध के प्रति प्रेम, अहं के प्रति विनम्रता और प्रहार के प्रति शांति का आचरण कर सकता है । यह क्रिया सामने वाले व्यक्ति के व्यवहार से प्रेरित नहीं होती किन्तु अपने ध्येय से प्रेरित होती है, इसलिए यह क्रिया है। स्वतन्त्रता का आध्यात्मिक अर्थ है क्रिया, परतन्त्रता का अर्थ है प्रतिक्रिया । अहिंसा क्रिया है, हिंसा प्रतिक्रिया । इसलिए महावीर ने अहिंसा को धर्म और हिंसा को अधर्म बतलाया। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि स्वतन्त्रता धर्म है और परतंत्रता अधर्म । आन्तरिक जगत् में मनुष्य सीमातीत स्वतन्त्र हो सकता है किन्तु शरीर, कर्म और समाज के प्रतिबन्ध-क्षेत्र में कोई भी मनुष्य सीमातीत स्वतन्त्र नहीं हो सकता। वहां आंतरिक और बाहरी प्रभाव उसकी स्वतन्त्रता को सीमित कर देते हैं। आत्मा अपने अस्तित्व में ही पूर्ण स्वतन्त्र हो सकती है। बाहरी सम्पर्को में उसकी स्वतन्त्रता सापेक्ष हो सकती है। यह संसार अपने स्वरूप में स्वयं बदलता है। इसके बाहरी आकार को जीव बदलते हैं और मुख्यतया मनुष्य बदलता है । क्या मनुष्य इस संसार को बदलने में समर्थ है? क्या वह इसे अच्छा बनाने में समर्थ है? इन प्रश्नों का उत्तर दो विरोधी धाराओं में मिलता है। एक धारा परतन्त्रतावादी दार्शनिकों की है। उनके अनुसार मनुष्य कार्य करने में स्वतन्त्र है। वह संसार को बदल सकता है, उसे अच्छा बना सकता है। कालवादी दार्शनिक मनुष्य के कार्य को काल से प्रतिबन्धित, स्वभाववादी दार्शनिक उसे स्वभाव से प्रतिबन्धित, नियतिवादी दार्शनिक उसे नियति से निर्धारित, भाग्यवादी दार्शनिक उसे भाग्य के अधीन और पुरुषार्थवादी दार्शनिक उसे पुरुषार्थ से निष्पन्न मानते हैं। महावीर ने मनुष्य के कार्य की अनेकांत दृष्टि से समीक्षा की। उन्होंने कहा-द्रव्य वह होता है, जिसमें अर्थक्रिया होती है। यह स्वाभाविक क्रिया है । यह न किसी निमित्त से होती है और न किसी निमित्त से अवरुद्ध होती है। यह किसी निमित्त से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003147
Book TitleSatya ki Khoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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