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________________ धर्म से आजीविका : इच्छा परिमाण यदि किसी वस्तु के उपभोग से अल्पकालिक सुख मिलता है तथा उपभोग न करने से बहुत कष्ट होता है तब उसको धनोत्सर्गिक वस्तु कहते हैं । सुख-दुःख के आधार पर आवश्यकताओं के इस वर्गीकरण को निम्न तालिका द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है मनुष्य के सुख-दुःख पर प्रभाव वस्तुएं अनिवार्यताएं सुखदायक वस्तुएं (सुविधाएं) विलासिताएं वस्तु का उपभोग करने पर थोड़ा-सा सुख मिलता है । कुछ अधिक सुख मिलता है बहुत सुख मिलता है । Jain Education International २९ सामने अर्थशास्त्री की दृष्टि में नैतिकता और शांति---ये सब गौण होते हैं । उसके मुख्य प्रश्न आर्थिक प्रगति के द्वारा मानवीय कल्याण का होता है। इस आधार पर वह विलासिता का समर्थन करता है और आर्थिक प्रगति के लिए उसे आवश्यक मानता है। धर्म-गुरु की दृष्टि में आर्थिक प्रगति का प्रश्न गौण होता है, नैतिकता और शांति का प्रश्न मुख्य होता है 1 धर्म-गुरु सामाजिक व्यक्ति को धर्म में दीक्षित करता है, इसलिए वह उसकी आर्थिक अपेक्षाओं की सर्वथा उपेक्षा कर उसके लिए अपरिग्रह के नियमों की संरचना नहीं कर सकता। इस आधार पर 'इच्छा - परिमाण' व्रत के परिपार्श्व में महावीर ने इन नैतिक नियमों का निर्देश दिया १. झूठा तोल - माप न करना । २. मिलावट न करना । वस्तु का उपभोग न करने पर बहुत दुःख होता है । थोड़ा दुःख होता है । दुःख नहीं होता । ' ३. असली वस्तु दिखाकर नकली वस्तु न बेचना । समाज के संदर्भ में इच्छा-परिमाण के नियामक तत्त्व दो हैं- प्रामाणिकता और करुणा । व्यक्ति के संदर्भ में उसका नियामक तत्त्व है - संयम । झूठा तोल -माप आदि न करने के पीछे संयम की प्रेरणा है। व्यक्तिगत उपभोग कम करने के पीछे संयम की प्रेरणा है । महावीर के व्रती श्रावक अर्थार्जन में अप्रामाणिक साधनों का प्रयोग १. एम. एल. सेठ, आधुनिक अर्थशास्त्र, पृ०९०-९१ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003147
Book TitleSatya ki Khoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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