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सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में
१. आर्थिक परिस्थिति द्वारा आवश्यकता का निर्धारण-गरीब व्यक्ति की
आवश्यकताएं सीमित तथा सादी होती हैं। वह केवल जीवन-रक्षक आवश्यकताओं को ही पूर्ण कर पाता है। धनी व्यक्ति की आवश्यकताएं उससे बहुत अधिक होती हैं। वह केवल जीवन-रक्षक आवश्यकताओं को ही पूर्ण नहीं करता, विलासितायुक्त आवश्यकताओं को भी पूर्ण करता
धार्मिक भावना के द्वारा आवश्यकता का निर्धारण धार्मिक व्यक्ति की आवश्यकताएं नैतिक दृष्टि से प्रभावित होती हैं। वह जिन नैतिक आदर्शों को मानता है उन्हीं के आधार पर अपनी आवश्यकताओं का निर्माण करता है। उसकी आवश्यकताएं बहुत कम और सादा होती हैं। किन्तु भौतिक मनोवृत्ति रखने वाले व्यक्ति की आवश्यकताएं उसकी तुलना में
बहुत अधिक और बहुत प्रकार की होती हैं। आवश्यकता का गढा इतना गहरा है कि उसे कभी भरा नहीं जा सकता। इस सत्य की स्वीकृति धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र—दोनों ने की है । भगवान् ने कहा--'लाभ से लोभ बढ़ता है। जैसे-जैसे लाभ होता है वैसे-वैसे लोभ बढ़ता जाता है। एक आवश्यकता पूर्ण होती है तो दूसरी नई आवश्यकता जन्म ले लेती है । आवश्यकता की इस विशेषता के आधार पर अशांति का नियम निश्चित किया गया। आवश्यकता की असीमितता के कारण मनुष्य की शांति भंग होती है । अर्थशास्त्र में भी आवश्यकता की अपूरणीयता प्रतिपादित है । डॉ० मार्शल ने लिखा है-'मनुष्य की आवश्यकताएं और इच्छाएं असंख्य और अनेक प्रकार की होती हैं। यदि मनुष्य एक आवश्यकता को पूर्ण करता है तो दूसरी नई आवश्यकता समाने खड़ी हो जाती है। जीवन-पर्यन्त अपनी सभी आवश्यकता की इस विशेषता के आधार पर 'प्रगति का नियम' (Law of Progress) स्थापित किया। उनका मत है कि असीमित आवश्यकताओं के कारण ही नये-नये आविष्कार होते हैं। फलस्वरूप समाज की आर्थिक प्रगति होती
है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है और सामाजिक जीवन का मुख्य आधार अर्थ है । इन दृष्टिकोण से आर्थिक प्रगति बहुत आवश्यक है। आवश्यकताओं के सीमित होने पर आर्थिक प्रगति को प्रोत्साहन नहीं मिलता। इसलिए आर्थिक विकास की दृष्टि
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1. Principles of Economics P. 73
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