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________________ २४ सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में अपनी विवाहित स्त्री के अतिरिक्त किसी के साथ अब्रह्मचर्य का सेवन न करना । ५. संग्रह की एक निश्चित सीमा करना । उस सीमा से अतिरिक्त संग्रह न ४. करना । ६. धन- संग्रह और भोगवृद्धि के लिए दूसरे देशों में न जाना, आदि-आदि । महावीर ने अर्थार्जन और काम सेवन में होने वाली आसक्ति को कम करने का विधान किया । किन्तु उनके उपभोग का विधान नहीं किया । उन्होंने धर्माचार्य की सीमा का काम किया, किन्तु समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री और कामशास्त्री की सीमा का काम नहीं किया। इस अर्थ में यदि कोई उनके दर्शन को अपूर्ण माने तो माना जा सकता है । उनके अनुयायी को दूसरी व्यवस्थाओं पर निर्भर होना पड़ता है- यदि कोई यह आरोप लगाए तो लगाया जा सकता है । शाश्वत धर्म की यह अपूर्णता और पर निर्भरता न हो तो स्मृति-धर्म शाश्वत धर्म के स्वरूप को ही धुंधला कर देगा | पूर्णता और आत्म-निर्भरता सापेक्ष ही हो सकती है । धर्म और नैतिकता की अपेक्षा से व्यक्ति वास्तविक हो सकता है, किन्तु अर्थ और काम की अपेक्षा से वह वास्तविक नहीं हैं । अर्थ और काम की अपेक्षा से समाज वास्तविक हो सकता है, किन्तु धर्म और नैतिकता की अपेक्षा से वह वास्तविक नहीं है । व्यक्ति वास्तविक और समाज अवास्तविक — व्यक्तिवादी दार्शनिकों की इस स्वीकृति ने व्यक्ति को अर्थ-संग्रह की असीमित स्वतन्त्रता देकर शोषण की समस्या को जन्म दिया। समाज वास्तविक और व्यक्ति अवास्तविक-समाजवादी दार्शनिकों की इस स्वीकृति ने व्यक्ति की वैचारिक स्वतन्त्रता को राज्य-प्रतिबद्ध कर मानव के यंत्रीकरण की समस्या को जन्म दिया । व्यक्ति और समाज की सापेक्ष वास्तविकता की स्वीकृति ही इन समस्याओं से समाज को मुक्ति दे सकती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003147
Book TitleSatya ki Khoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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