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मानवीय एकता
मैंने एक बार पढ़ा, जैन धर्म में विश्वधर्म होने की क्षमता है। मैंने दूसरी बार पढ़ा, जैन धर्म विश्वधर्म है । मैं चिन्तन के गहरे में गया। मैंने मन ही मन सोचा क्या ये विचार सत्य हैं ? क्या जैन धर्म में विश्वधर्म होने की क्षमता है ? क्या वह विश्वधर्म हैं? मैं विश्वधर्म के मानदण्डों से जैन धर्म को मापने लगा। जिसके अनुयायियों की संख्या विशाल हो वह विश्वधर्म हो सकता है। जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या एक करोड़ से अधिक नहीं है, फिर वह विश्वधर्म कैसे हो सकता है ? जिसके अनुयायी विश्व के हर कोने में विद्यमान हों वह विश्वधर्म हो सकता है। जैन धर्म के अनुयायी कुछेक देशों में विद्यमान हैं, फिर वह विश्वधर्म कैसे हो सकता है ? जिसके अनुयायी सब जातियों और सब प्रकार के आवश्यक व्यवसाय करने वालों में हों वह विश्वधर्म हो सकता है, किन्तु जैन धर्म के अधिकांश अनुयायी वैश्य हैं, फिर वह विश्वधर्म कैसे हो सकता है ? इन मानदण्डों के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि जैन धर्म अपने वर्तमान स्वरूप में विश्वधर्म नहीं है। मैं एक चरण पीछे लौटा और मैंने यह देखने का प्रयत्न किया— क्या जैन धर्म में विश्वधर्म होने की क्षमता है ? मैं यह देखकर स्तम्भित रह गया कि उसमें विश्वधर्म होने की क्षमता भी नहीं है । मैं कुछ हताश - सा हो गया। जिस धर्म के प्रति मेरे मन में ममता है, श्रेष्ठता का संस्कार हैं, उसे परीक्षा के समय कल्पना की ऊंचाई पर नहीं पा सका, इसलिए हताश होना अस्वाभाविक नहीं था । मैंने अपने चरण अतीत की अनजानी राहों में बढ़ाए। मैं खोया-खोया सा चलता चला। एक बिन्दु पर पैर ठिठक गए। कोई अपरिचित चेहरा मेरे पास आकर मेरे कानों में गुनगुनाने लगा ।
'मनुष्य जाति एक है ।' मैंने वह स्वर पहचान लिया। वह स्वर नियुक्तिकार भद्रबाहु का था । मैंने उनसे पूछा
'क्या यह सत्य है कि मनुष्य जाति एक है ?'
'यह काल्पनिक नहीं, वास्तविक सत्य है ।'
'फिर मनुष्य जाति का विभाजन किसने किया ? ' 'मनुष्य ने ।'
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