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सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में ..
परिग्रह-ये राग-द्वेष के ही परिणाम हैं, राग-द्वेष के होने पर ये होते हैं, उसके न होने पर नहीं होते। भगवान् ने साढ़े बारह वर्ष के साधनाकाल में केवल ३५० दिन भोजन किया। शेष समय उपवास में बीता। उन्होंने छह मास तक लगातार उपवास किया। भगवान् ने समूचे साधनाकाल में कुल मिलाकर अड़तालीस मिनट से अधिक नींद नहीं ली। भगवान् ने सर्दी-गर्मी से बचने के लिए कोई भी वस्त्र नहीं ओढ़ा । कष्ट आने पर किसी की शरण में नहीं गये। चींटियों में सताया, जंगली मच्छरों ने काटा, अग्नि से पैर झुलस गये। पर भगवान् ने उनका वैसे अनुभव किया जैसे कुछ हुआ ही न हो। लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, निंदा-अनिंदा, मान-अपमान, जीवन-मरण के अनगिन प्रसंगों और घटनाओं ने भगवान् की समता की कसौटी की । पर हर कसौटी में वे खरे उतरे। उनकी विदेह-साधना सिद्ध हो गई। उनकी अभय-साधना सिद्ध हो गई। उनकी समता की साधना सिद्ध हो गई। वे वीतराग की भूमिका में केवली हो गये। परोक्ष ज्ञान का लोहावरण ट गया। उनकी चेतना अनावत हो गई। उन्हें ज्ञान के माध्यमों की अपेक्षा नहीं रही । इन्द्रिय, मन और बुद्धि की उपयोगिता समाप्त हो गई। उनके लिए सब कुछ प्रत्यक्ष हो गया। साधनाकाल में भगवान् प्रायः मौन, अकर्म और ध्यानस्थ रहे । साधना की सिद्धि होने पर उन्होंने सत्य की व्याख्या की। उन्होंने व्याख्या का माध्यम जन-भाषा को बनाया। उनके उपदेश आज भी उस समय की जनभाषा-प्राकृत में मिलते हैं।
सत्य
ईस्वी पूर्व छठी शताब्दी सत्य की उपलब्धियों की शताब्दी है। उस शताब्दी में भारतीय क्षितिज पर महावीर और बद्ध, चीनी क्षितिज पर लाओत्से और कन्फ्यूशियस, यूनानी क्षितिज पर पाइथेगोरस जैसे महान धर्मवेत्ता सत्य के रहस्यों का उद्घाटन कर रहे थे। वे भौगोलिक सीमा से विभक्त थे । उनका प्रतिपादन इस तथ्य की घोषणा है कि सत्य शाश्वत है । वह देश और काल से व्यवच्छिन्न नहीं है।
ईस्वी पूर्व नवीं शताब्दी में जैन धर्म के महान् तीर्थंकर भगवान् पार्श्व हो चुके थे। उनका धर्मशासन सत्य का सापेक्ष उद्घोष कर रहा था। उस समय उपनिषद् लिखे जा रहे थे। औपनिषदिक ऋषि नेति-नेति के द्वारा सत्य की व्याख्या कर रहे थे। महावीर के समय तक उसकी पुनरावृत्ति हो रही थी। बुद्ध ने कहा—'सत्य अव्याकृत है।' लाओत्से ने कहा-'सत्य कहा नहीं जा सकता।' महावीर ने कहा-'सत्य नहीं कहा जा सकता, यह जितना वास्तविक है उतना ही वास्तविक यह है कि सत्य कहा जा सकता है । सत्य कहा जा सकता है-इसका स्वीकार यदि
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