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शक्ति प्राप्त हो सकती है ।
जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य में अनन्त शक्ति है । वह द्रव्य चाहे जीव हो या पुद्गल । काल की अनन्त - धारा में वही द्रव्य अपना अस्तित्व रख सकता है जिसमें अनन्त शक्ति होती है । वह शक्ति परिणमन के द्वारा प्रकट होती रहती है । आज के वैज्ञानिक जगत् में जितना प्रयोग हो रहा है, उसका क्षेत्र पौगलिक जगत् है । पौद्गलिक वस्तु को उस स्थिति में ले जाया जा सकता है, जहां उसकी स्थूलता समाप्त हो जाए, उसका द्रव्य-मान या द्रव्य-संहति समाप्त हो जाए और उसे शक्ति के रूप में बदल दिया जाए ।
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जैन दर्शन ने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक—– इन दो नयों से विश्व की व्याख्या की है । हम विश्व को अभेद की दृष्टि से देखते हैं तब हमारे सामने द्रव्य होता है । यह नीम, मकान, आदमी, पशु-ये द्रव्य ही द्रव्य हमारे सामने प्रस्तुत हैं । हम विश्व को जब भेद या विस्तार की दृष्टि से देखते हैं तब वह द्रव्य लुप्त हो जाता है । हमारे सामने होता है - पर्याय और पर्याय । परिणमन और परिणमन । आदमी कौन होता है ? आदमी कोई द्रव्य नहीं है। आदमी है कहां ? आप सारी दुनिया में ढूंढें, आदमी नाम का कोई द्रव्य आपको नहीं मिलेगा । आदमी एक पर्याय है। नीम कोई द्रव्य नहीं है । वह एक पर्याय है। दुनिया में जितनी वस्तुओं को हम देख रहे हैं, वे सारी की सारी पर्यायें हैं, हम पर्याय को देख रहे हैं । द्रव्य हमारे सामने नहीं आता । वह आंखों से ओझल रहता है । इस सत्य को आचार्य हेमचन्द्र ने इन शब्दों में प्रकट किया था
अपर्ययं वस्तु समस्यमानमद्रव्यमेतच्च विविच्यमानं ।'
सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में
- हम अभेद के परिपार्श्व में चलें तो पर्याय लुप्त हो जाएगा, बचेगा द्रव्य । हमारी दुनिया बहुत छोटी हो जाएगी। विस्तार शून्य हो जाएगी। हम भेद के परिपार्श्व में चलें तो द्रव्य लुप्त हो जाएगा, बचेगा पर्याय । हमारी दुनिया बहुत बड़ी हो जाएगी । भेद अभेद को निगल जाएगा। केवल विस्तार और विस्तार ।
परिणमन के जगत् में जैसा जीव है, वैसा ही पुद्गल है । किन्तु इस विश्व में जितनी अभिव्यक्ति पुद्गल द्रव्य की है, उतनी किसी में नहीं है। अपने रूप को बदल देने की क्षमता जितनी पुद्गल में है, उतनी किसी में नहीं है । हमारे जगत् में व्यक्त पर्याय का आधारभूत द्रव्य यदि कोई है तो वह पुद्गल ही है ।
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