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भूमिका
धर्म, दर्शन और अध्यात्म जैसे गूढ़ गम्भीर विषयों को लक्ष्य बनाकर लिखी गई पुस्तक 'अध्यात्म के परिपार्श्व में' एक ऐसी तत्त्व चिन्तन की पुस्तक है, जिसमें धार्मिक मतवाद से हटकर धर्म के वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डालने का लेखक ने प्रयास किया है । चिन्तन-मनन शीर्षक से लेखक ने कुछ ऐसे विषयों का चयन किया है जो सामान्यतः हमारी ष्टि परिधि में होते हुए भी दष्टि से ओझल बने रहते हैं। अपरिग्रह, अहिंसा, शाकाहार, पर्यावरण, वृक्षों की उपादेयता आदि विषय ऐसे हैं जो मानव जीवन के साथ गहरे स्तर पर जुड़े है किन्तु उनका तात्विक रूप हम समग्रतः समझ नहीं पाते । अहिंसा और अपरिग्रह की बात सब करते हैं किंतु परिग्रह की माया में फंसे हुए अपरिग्रह को भूले रहते हैं । अहिंसा की चर्चा तो सभी देशों में होती रहती है किंतु जितनी हिंसा बीसवीं शती में हुई है शायद पहले कभी न हुई होगी । मानव जाति के विनाश के लिए तरह-तरह के अणु-आयुधों, हिंसक गैस विषाणुओं का निर्माण हो रहा है, पहले कभी नहीं हुआ था । लेखक ने अपने संक्षिप्त लेखों में इन बातों को बड़ी सजीव शैली में प्रस्तुत किया है । उन चुनौतियों पर भी प्रकाश डाला है जो आज वैश्विक चेतना को झकझोर रहा है। विश्व एकता और विश्व बन्धुत्व की वाचिक चर्चा तो सर्वत्र संगोष्ठियों, राष्ट्रसंघ की बैठकों और पारस्परिक सौहार्द संवेदन के प्रसंगों में होती है किन्तु विश्व में शत्रुता और वैमनस्य का जो विषैला वातावरण फैलता जा रहा है, उसे शांत करने का कहीं कोई सार्थक प्रयास लक्षित नहीं होता । लेखक ने इन समस्याओं को केन्द्र में रखकर अपने विचार व्यक्त किये हैं।
धर्म-दर्शन शीर्षक दूसरे खंड में जैन धर्म विषयक कुछ प्रश्नों को विचार के स्तर पर प्रस्तुत किया है। पहला लेख 'मानव धर्म और असाम्प्रदायिक दृष्टि' एक ऐसे दर्द को उद्घाटित करता है जो सम्प्रदायों की संकीर्ण विचार धारा के कारण मानव को मानवता से काटकर हिंस्र पशु के बीच खड़ा कर देता है। यदि मानवता हमारा धर्म रहे तो सम्प्रदाय, पंथ या मत की विभेदक दीवारें हमारे बीच खड़ी ही नहीं होंगी। लेकिन हम आज मानवता को भुला बैठे हैं फलतः कलह, फूट, द्वेष और हिंसा का भयावह रूप प्रकट होता जा रहा है। इसी खंड में लेखक ने जैन धर्म के कतिपय शाश्वत सिद्धांतों की तटस्थ भाव से चर्चा की है । लेखक ने जैनधर्म के उन सिद्धांतों
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