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________________ मानव-धर्म और असाम्प्रदायिक दृष्टि तुलसीदास ने इसलिए कहा है ---- सीय राम मय सब जग जानी, करहु प्रनाम जोरी जुग पानी । राम तो भारत के कण-कण में विराजमान हैं। उन्होंने कहा था कि मैं न तो बैकुण्ठ में हूं, न योगियों के हृदय में हूं, जहां कहीं मेरा भक्त मुझे पुकारता है, मेरा नाम लेता है मैं वहीं हूं । राजनीति के खिलाड़ी राम के कंधे पर बंदूक रखकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। राजनीति में जब तक नैतिकता नहीं आयेगी तब तक इस देश से साम्प्रदायिकता का विष दूर नहीं होगा । आप गांधीजी के व्यक्तित्व को देखिए - वह आपादमस्तक धर्ममय है, नैतिकता से सराबोर है । वह राजनैतिक पुरुष थे, मगर उनकी राजनीति नैतिकता की बैसाखी के सहारे चलती थी, उनका रोम-रोम धर्ममय था तभी तो उनके मुख से अन्तिम सांस लेते 'राम' शब्द निकला जबकि बड़े-बड़े महान योगी, ध्यानी अन्तिम समय में राम का नाम नहीं ले पाते, उनके मुख से राम उच्चरित नहीं हो पाता । गांधीजी की समाधि भी धर्म और नैतिकता का प्रतीक है, राष्ट्रीयता का शुभ्रतम स्वरूप तो वह है ही । उनकी समाधि पर उकेरा गया है Commerce without Ethics Pleasure with conscience Politics without principle Knowledge with Charactor Science with humanity Wealth without work Worship without sacrefice यह भारतीय संस्कृति के मूल्य हैं। आज हम गांधीजी द्वारा निर्दिष्ट सात पापों से अपने को बचाकर नहीं रख पा रहे हैं । गांधीजीने तो धूल से उठाकर लोगों को मानव बनाया। हम एक तरफ भाषा विवाद खड़ा करते हैं, दूसरी तरफ प्रान्तीयता की, क्षेत्रीयता की भावना को हवा देते हैं, तीसरी तरफ जातिवाद का परचम फहराते हैं और लोगों से कहते हैं कि राष्ट्रीय एकता को मजबूत करो । राष्ट्रीय एकता की जड़ों को हम खुद कमजोर बनाएंगे तो राष्ट्रीय एकता कहां से आ पायेगी । यह कोई ईंट गारे से तैयार नहीं होती, यह तो लोगों के अन्तःकरण की सारस्वत भावना है । हमने स्वतन्त्रता प्राप्त की जिसका अर्थ मनमानी करना नहीं, ऐसा करके हम अपनी लम्बे संघर्ष से अर्जित स्वतंत्रता की रक्षा नहीं कर सकेंगे । स्वतंत्रता यानी 'इण्डिपेंडेंट का अर्थ है 'इन्टर - डिपेंडेंट'; हम एक-दूसरे पर निर्भर हैं, एक प्रान्त दूसरे प्रान्त पर एक जाति दूसरी जाति पर, एक Jain Education International ६७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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