________________
१६०
अध्यात्म के परिपार्श्व में
के बन्धन तोड़ने पर तो नदी भी प्रलय मचाती है, विनाश-लीला दिखाती है। इसलिए सह-अस्तित्व मंत्री की और समन्वय की आवश्यकता है। आचार्य श्री तुलसी समन्वय तथा सद्भावना बनाने में सक्रिय है। वे समाज को एक नया मोड़ देने में प्रयत्नशील हैं।
_ उन्होंने देश को, समाज को एक जीवन-पद्धति दी-"अणुव्रतआंदोलन" के रूप में जो १९४८ से चल रहा है। अणुव्रत के स्वरूप को यों व्याख्यायित किया-''अणुव्रती बनने का अर्थ है-अच्छा मनुष्य बनना । अणुव्रती बनने का अर्थ है प्रायोगिक जीवन जीना । जो व्यक्ति अणुव्रत का निष्ठा से पालन करता है वह अपने परिवार, 'पड़ोस और समाज को भी प्रभावित कर सकता है।" हमारे यहां धर्म की आभा घट रही है, सम्प्रदाय की आभा बढ़ रही है । अणुव्रत द्वारा सम्प्रदाय गौण होगा, धर्म प्रधान बनेगा। धर्म आज नैतिकता से विहीन होता जा रहा है, इसलिए उसकी ऊर्जा में कमी आ रही है । आचार्यश्री ने धर्म को नैतिकता से जोड़ा है, सम्प्रदाय के पृथक् किया है। धर्म को उन्होंने चरित्र से जोड़ा है, उसे जातिवाद से पृथक् किया है। तभी तो अहमद बख्श सिंधी (भूतपूर्व विधिमन्त्री, राज.) ने कहा था-'आपका कार्यक्रम जाति, वर्ग और सम्प्रदाय की भावनाओं से ऊपर उठकर किए जा रहे हैं। समाज में व्याप्त कुरीतियों को मिटाने के लिए आपने बहुत श्रम किया है।" १९८३ में बालोतरा में चातुर्मास सम्पन्न होने पर आचार्यश्री वहां से प्रस्थान करने वाले थे तो मुसलमानों ने उन्हें अपने मदरसे में सादर आमंत्रित किया। वहां के मौलाना अनीसुर्रहमान ने उनके विषय में कहा था-"आचार्य जी की तालीम इन्सान को इन्सानियत तक पहुंचाने वाली है।" बात बिल्कुल सच्ची है। आचार्यश्री तुलसी इन्सानियत का पैगाम देने वाले सन्त हैं। हिन्दू, मुसलमान, ब्राह्मण, सिख, जाट, हरिजन सामने देखकर बात नहीं करते । वे बात करते हैं सबको इन्सान समझकर । इन्सानियत की दृष्टि से देखते हैं सबको और चाहते हैं यह दृष्टि सब लोग प्राप्त करें। सब में मानवता का भाव जाग उठे । सन्तात्मा के सामने सब समान होते हैं और सन्त सबके होते हैं । उन पर किमी एक जाति या सम्प्रदाय का इजारा नहीं होता। वे तो रोशनी का मीनार होते हैं । आचार्यश्री तुलसी रोशनी के मीनार हैं; ज्ञान की रोशनी के मीनार, एकता-समानता की भावना के मीनार, इन्सानियत के मीनार. त्याग-तप के मीनार, अहिंसा के मीनार, चरित्र के मीनार, सम्यक दृष्टि के मीनार । उससे हम वह रोशनी प्राप्त कर सकते हैं जिससे मानवता का रास्ता आलोकित हो उठेगा । आचार्यश्री एक सम्प्रदाय की सीमा में बन्धकर नहीं चलते । सीमा तो उनके सामने है अनुशासन की। वे सम्प्रदाय के लिए पदयात्राएं नहीं करते; मानवता के प्रसार के लिए पदयात्राएं करते हैं, देश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org