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________________ महावीर की चेतना - ज्योति १५७ प्राप्त किया, वह सर्वत्र हो गये, सर्वदर्शी हो गये । उनके सामने सब प्राणी समान थे, वे समदर्शी थे, वह मानव से जीव जगत् में प्रविष्ट हुए, उनकी अहिंसा मानव तक सीमित नहीं थी, उसकी सव्यापकता जीवों तक थी - कीटपतंगों, कीड़े-मकोड़ों तक थी । अहिंसा का यह कैसा अदभुत रूप है, संसार में अनोखा | महावीर को ई० पू० ५५७ में निर्वाण प्राप्ति हुई। उन्होंने जिस मैत्री की, अहिंसा की लौ जगाई, वह आज भी अकंप है, और शाश्वत ज्योति विकीर्ण करती रहेगी। आज हमें उनकी इसी अहिंसा और मैत्री की, अनेकांतवाद में समाहित साम्प्रदायिक तथा वैचारिक सहिष्णुता की आवश्यकता है । उन्होंने ठीक कहा है- “ श्रमण होने का अर्थ है शान्ति । श्रमण होने का अर्थ है मंत्री । तुम अपनी मैत्री को जगाओ। जो मैत्री जगाता है वह श्रमण होता है, जो मैत्री को नहीं जगाता वह श्रमण नहीं होता ।" हमें उनकी इसी मैत्री की चेतना को जन-मानस में जगाना है तो देश का, मानव जाति का कल्याण सम्भव है, यही संघर्ष व विषमता की दुनिया छोड़कर अहिंसा व मंत्री की दुनिया में जाना है ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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