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________________ १५६ अध्यात्म के परिपार्श्व में समान अधिकार है । “असंविभागी हु तस्स मोक्खो" यह उनका उद्घोष है । हर प्रकार की विषमता का निराकरण महावीर की अपरिग्रह - चेतना में शामिल है । भगवान महावीर ने भिक्षुओं से कहा – “तुम परिव्रजन करो तथा अभिजात और निम्नवर्ग को एक ही धर्म की शिक्षा दो । जो धर्म अभिजात वर्ग के लिये है वही निम्न वर्ग के लिये है और जो निम्न वर्ग के लिए वही अभिजात वर्ग के लिए है । अभिजात और निम्न- दोनों के लिए मैंने एक धर्म का प्रतिपादन किया है ।" यही तो सामाजिक तथा साम्प्रदायिक एकता है । यहां न कोई अमीर है, न कोई गरीब, न कोई छोटा है न कोई बड़ा । महावीर जन-जन को उबुद्ध करते हैं, बस्ती-बस्ती, गांव-गांव जाते हैं और सभी को समान रूप से अपने 'समवसरण' में अमृत वचनों से अभिसिक्त करते हैं । वह चंदना का आहार करते हैं, बन्दी चंदना का, साधारण आहार - ' उबले हुए उड़द का आहार । यही उनकी एकता का, समता का आदर्श है । उन्होंने कहा न वि मुण्डिएण समणो, न ओंकारेण बम्मणो । न मुणी रण्ण वासेणं, कुसचीरेण न तावसो || समयाए समणी होई, बम्भचेरेण बम्भणो । नाणेण य मुणी होइ, तवेणं होइ तावसो || अर्थात् सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता । ओम् का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता । अरण्यवास करने से कोई मुनि नहीं होता । वल्कर चीवर पहनने से कोई तापस नहीं होता । 'अथर्वेद' में ऋषि सृष्टा की वाणी में कहलाता है - सहृदयं सांमनस्यमविद्वेष कणोमिवः अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जाम्ल मिवाध्न्या । अर्थात् मैं तुम सबको एक हृदय वाला और एक मन वाला और आपस में द्वेष न रखने वाला सिरजता हूं । तुम एक दूसरे से मिलने के लिए प्रेम से खिंचकर चले आओ, जैसे अपने बछड़े की तरफ गाय दौड़ी हुई आती है । और सृष्टा के मुख से यहां तक कहलाया गया है - " समानी प्रपा सह वोन्नभागः, समानेयोक्त्रे सहवो युनिज्म ।" तुम्हारा पानी पीने का स्थान एक हो, तुम्हारा सबका परस्पर में एक साथ भोजन हो, तुमको मैं एक ही बन्धन में बांध रहा हूं । ईश्वर ने मानव जाति को जिस बन्धन में बांधने की बात कही है वह एकता का बन्धन है, ममता का बन्धन हैं, प्रेम का बन्धन है, भाईचारे का बन्धन है, सहिष्णुता का बन्धन है, अहिंसा का बन्धन है, अपरिग्रह और अनेकान्तवाद का बन्धन है । महावीर अहिंसा की गहराई में आत्मौपम्य दृष्टि प्राप्त कर सर्वत्र देखा । Jain Education International अन्त तक उतर गये थे । उन्होंने उन्होंने ५५७ ई० पू० "कैवल्य" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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