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________________ १५४ अध्यात्म के परिपार्श्व में लोकहित में लगाने के लिए क्रियारत रहता है, साधनारत रहता है। सर्वहित, सर्वोदय और सर्वलोक का कल्याण ही तीर्थङ्कर के जीवन का लक्ष्य होता है (योग बिन्दु २८५-२८८) । महावीर का जीवन आत्महित या लोकहित तक सीमित नहीं रहा, उन्होंने लोकहित व लोककल्याण का अमृत सबको बिना किसी पक्षपात के वितरित किया । आज किसी भी सम्प्रदाय या धर्म का अनुयायी हो वह भी महावीर की जीवन-ज्योति से प्रकाश ग्रहण करता है। वह केवल जैन लोगों के युगपुरुष नहीं, उनका ही एकमात्र इजारा उन पर नहीं है। महानात्मा युगपुरुष किसी जाति की बपौती नहीं होते। वह सकल मानवता की सांझी पूंजी होते हैं, अक्षयपूंजी। इन्हीं महानात्माओं के बल से समाज में धर्म की प्रतिष्ठा बनी रहती है, मस्जिद व मन्दिर आबाद रहते हैं, समाज में शान्ति की व्यवस्था बनी रहती है, लोगों में परस्पर सहयोग, भाईचारा, सहानुभूति प्रेम, दया, करुणा बढ़ती है, जीवन के शाश्वत मूल्यों की वर्षा होती रहती है और हमारे सम्यक् आचरण से शून्य सम्यक् ज्ञान और दर्शन से सूखे हृदय पुनः लहलहा उठते हैं। जैनदर्शन का गंतव्य है 'व्यक्तिगत जीवन में निवृत्ति और सामाजिक जीवन में प्रवृत्ति । अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को छोड़कर लोकसेवा और जनसेवा की ओर बढ़ना जैनधर्म का गंतव्य है। हमें भोगविलास को मर्यादाहीनता तक न भोगकर, उसे तिलांजलि देकर अपनी आंकाक्षाओं से ऊपर उठकर समाज कल्याण की ओर प्रवृत्त होना चाहिये । महावीर चाहते तो भोगविलास में रातदिन आकंठ डूबे रह सकते थे, मनचाहा सुख वैभव अर्जित कर सकते थे, मगर इन सबको उन्होंने ठुकरा दिया अपने स्वार्थ के लिए नहीं, लोकहित के लिए, लोककल्याण के लिए । व्यक्तिगत सुधार के बिना सामाजिक सुधार की दुहाई देना ऐसा है कि आप अपने मुख की कालिमा न पोछे और दूसरे की कालिमा की निंदा करें। पहले हमें अपने को टटोलना चाहिये, अपने को खंगालना चाहिये, अपने को धोना चाहिये, अर्थात् आत्मशोधन करना चाहिये, आत्मविकास करना चाहिये जो सम्यक् आचरण, ज्ञान और दर्शन से ही संभव है। आत्मशोधन करने के उपरान्त परशोधन में लग जाना चाहिये। यहां हमारे सामने जाति विशेष या व्यक्ति विशेष की बात नहीं रहती, जन-साधारण की बात रहती है । यही महावीर का आत्मोदय से लोकोदय की ओर जाना है। हम इसके अनुकूल आचरण नहीं कर पा रहे हैं। हम आत्मोदय को ही देखते हैं, लोकोदय तक हमारी तंग नजर नहीं जाती। जैनदर्शन लोकसाधना को लेकर आगे बढ़ता है, महाव्रतों के प्रतिपादन से भगवान महावीर ने लोकहित की भावना को ही महत्त्व प्रदान किया है। अहिंसा के विवेचन में कहा गया है कि साधना के प्रथम स्थान पर स्थित अहिंसा सभी प्राणियों का कल्याण करे । यह भगवती अहिंसा भूखे को भोजन खिलाने में है, प्यासे को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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