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३६. जीवन को संवारने वाले तत्त्व
मनुष्य के जीवन को संवारने वाले दो तत्त्व हैं-अध्यात्म और नैतिकता। अध्यात्म शाश्वत मूल्य है। नैतिकता देश-काल-सापेक्ष सचाई है। अध्यात्म का सम्बन्ध अन्तर्जगत के साथ है। नैतिकता बाह्य-जगत का व्यवहार है। अध्यात्म की सत्ता त्रैकालिक है। नैतिकता का सम्बन्ध वर्तमान के साथ है। अध्यात्म की परिभाषा निश्चित है। नैतिकता की परिभाषा परिवर्तनशील है। अध्यात्म का कोई सन्दर्भ नहीं होता। वह नितान्त निरपेक्ष तत्त्व है। जैन दर्शन की भाषा में वह निश्चय है। नैतिकता विभिन्न सन्दर्भो और कालखण्डों में आबद्ध रहती है। जैन दर्शन की भाषा में वह व्यवहार है। अध्यात्म की परिभाषा का निर्धारण किसी वैचारिक धरातल या सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश के आधार पर नहीं होता। नैतिकता को परिभाषित करते समय ये सब सामने रहते हैं । अध्यात्म कभी नैतिकता शून्य नहीं होता। किन्तु नैतिकता अध्यात्म की परिधि से बाहर भी जाती है। ___अध्यात्म सदा था, है और रहेगा। उसकी सत्ता को कभी चुनौती नहीं दी जा सकती। अध्यात्म का सीधा-सा अर्थ है-आत्मा में रहना। जो व्यक्ति आत्मा में रहता है, अपने आप में रहता है, वह आध्यात्मिक है। आध्यात्मिक व्यक्ति को अपने अस्तित्व का बोध होता है। उस अस्तित्व को वह सबमें देखता है। इसलिए उसका कोई भी आचरण ऐसा नहीं होता, जो किसी के अस्तित्व को अस्वीकार या प्रतिहत करे। अध्यात्म सबके लिए आदर्श हो सकता है। पर इस क्षेत्र में आगे बढ़ना सबके लिए संभव नहीं है। इसलिए दूसरे पथ की खोज की गई। उसकी पहचान नैतिकता के रूप में होती है।
नैतिकता और अनैतिकता-ये दोनों शब्द सापेक्ष हैं। लोगों की जुबान पर बार-बार एक बात फिसलती है कि नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है।
जीवन को संवारने वाले तत्त्व : ७७
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