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५. शान्ति का उत्स है संयम
धर्म अमृत है। अमृत जब जहर का काम करने लगे तो उसे पीना कौन चाहेगा? धर्म शान्ति एवं सद्भावना का प्रतीक है। उसके नाम पर साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ेगा, तो धर्म को महत्त्व कौन देगा? धर्म और मजहब-ये दो भिन्न तत्त्व हैं। दोनों को एक मान लिया गया, समस्या की जड़ यही है। मजहब के बिना भी धर्म हो सकता है क्या? इस प्रश्न का सीधा-सा समाधान है अणुव्रत।
अणुव्रत धर्म है, पर सम्प्रदाय नहीं है। अणुव्रत धर्म है, पर उसकी कोई उपासना-विधि नहीं है। परलोक सुधारने के लिए धर्म की आराधना, यह अणुव्रत की आस्था नहीं है। अणुव्रत का दर्शन वर्तमान की स्वस्थता पर आधारित है। इसका विश्वास मानवीय मूल्यों में है। कठिनाई यह है कि मूल्य जीवन से फिसलते जा रहे हैं। जीवन के साथ मूल्यों को जोड़ने का एक छोटा-सा उपक्रम है अणुव्रत।
अणु और व्रत-इन दो शब्दों के योग से अणुव्रत बना है। अणु सूक्ष्मता का वाचक है और व्रत की चेतना संकल्प-शक्ति की प्रतीक है। जाति, देश, धर्म, रंग, लिंग आदि भेदरेखाओं को पार कर इन्सान को इन्सानियत की प्रेरणा देना अणुव्रत का लक्ष्य है। मंदिर और मस्जिद के विवादों से दूर रहकर ऊंचा जीवन जीने की दिशा का प्रशस्तीकरण अणुव्रत का फलित है। धार्मिक कहलाने से पहले नैतिक बनने की दृष्टि देकर अणुव्रत ने नैतिकताशून्य धर्म के आगे प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया।
वर्तमान युग की सबसे बड़ी त्रासदी है-कथनी और करनी में विरोध। व्यक्ति कहता कुछ है और करता कुछ है। यह स्थिति राजनीति और व्यवसाय क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है। धर्म के मंच से भी जब ऐसी विसंगतियों का
१० : दीये से दीया जले
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