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४. प्रासंगिकता संयम की
अणुव्रत जीवन का दर्शन है, समाज का दर्शन है, मानवीय मूल्यों का दर्शन है और चरित्र का दर्शन है। साइन्स और टेक्नोलॉजी से उसका कोई विरोध नहीं है । उसका विरोध है असंयम से। जिस राष्ट्र के जीवन-दर्शन में असंयम घुला हो, वह राष्ट्र संयम, चरित्र या मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठित करने का प्रयास क्यों करेगा? जिस राष्ट्र की धमनियों में असंयम का रक्त प्रवाहित हो रहा हो, वहां संयम को आदर्श क्यों माना जाएगा? त्याग और भोग की दिशाएं सर्वथा भिन्न हैं । जिस प्रकार पूर्व और पश्चिम के रास्ते अलग-अलग होते हैं, उसी प्रकार संयम और असंयम के रास्ते भिन्न-भिन्न हैं। अणुव्रत संयम का रास्ता है ।
कोई भी सदी क्यों न हो, पांचवीं सदी हो या पचीसवीं, संयम कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकता। जब तक संयम की प्रासंगिकता है, अणुव्रत कभी अप्रासंगिक नहीं बन पाएगा । अणुव्रत व्यक्ति को संन्यासी बनाने की बात नहीं करता । वह जीवन को परिष्कृत या संशोधित करने का निर्देश देता है ! उसकी न कोई जाति है और न कोई सम्प्रदाय । वह किसी वर्ग विशेष के लिए है, यह बात भी नहीं है । क्षेत्रीय सीमाएं उसकी गति को बाधित नहीं करतीं । मानव मात्र को संयम की दिशा में प्रेरित करने वाली आचार-संहिता का नाम है - अणुव्रत ।
अणुव्रत न स्वर्ग की चर्चा करता है और न मोक्ष की । वर्तमान जीवन की शैली कैसी हो ? उसका एक मॉडल प्रस्तुत करता है - अणुव्रत । इस सदी का मनुष्य हिंसा, आतंक, युद्ध, वैमनस्य, घृणा आदि समस्याओं से आक्रान्त है । साम्प्रदायिक उन्माद की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। धर्म के नाम पर राजनीति खेली जा रही है । व्यवसाय की प्रतिस्पर्धा से नीति नामक तत्त्व को
८ : दीये से दीया जले
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