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२. स्वस्थ समाज का स्वरूप
समाज के दो रूप हैं-रुग्ण समाज और स्वस्थ समाज। रुग्णता किसी को काम्य नहीं है। हर व्यक्ति स्वास्थ्य चाहता है। स्वास्थ्य पाने के लिए वह स्वस्थ समाज की खोज करता है। पर उसके सामने कठिनाई एक ही है कि वह स्वस्थता और रुग्णता के मानदण्डों में उलझ जाता है। जिस समाज में कोई गरीब न हो, कोई बेरोजगार न हो, कोई सुख-सुविधा के साधनों से वंचित न हो और प्राकृतिक आपदाओं से प्रताड़ित न हो, वह समाज स्वस्थ है। यह एक मानदण्ड है। दूसरा मानदण्ड शैक्षणिक विकास की परिक्रमा करता है। जिस समाज में अधिक-से-अधिक शिक्षा संस्थान हों, गांवों और ढाणियों में भी पढ़ने की सुविधा हो और जहां कोई निरक्षर न हो, वह समाज स्वस्थ है। कुछ लोगों की दृष्टि में स्वस्थता या उच्चता का मानक है विलासिता की साधन सामग्री। जिस समाज में हर व्यक्ति के पास अपनी कार हो, फ्रिज हो, कूलर हो, टी. वी. हो, कम्प्यूटर हो, कलक्युलेटर हो तथा इसी प्रकार की नई-नई आविष्कृत होने वाली सब वस्तुएं हों, वह समाज स्वस्थ होता है।
हर व्यक्ति का अपना चिन्तन और अपना दृष्टिकोण है। दूसरों का चिन्तन गलत है और मेरा चिन्तन सही है, ऐसा आग्रह मैं क्यों करूं? मुझे भगवान महावीर का अनेकान्त दर्शन प्राप्त है। इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के चिन्तन में सत्य का अंश हो सकता है। समस्या वहां पैदा होती है, जहां सत्य के एक अंश को संपूर्ण सत्य मान लिया जाता है। समस्या का दूसरा रूप है अपने चिन्तन को सत्य मानकर दूसरों के चिन्तन को असत्य प्रमाणित करने का प्रयास करना। मैं अपने चिन्तन को न तो संपूर्ण सत्य मानता हूं और न दूसरों के चिन्तन को नितान्त असत्य स्वीकार करता हूं। मेरे अभिमत से स्वस्थ समाज का स्वरूप यह हो सकता है
४ : दीये से दीया जले
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