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है । इनके साथ सौन्दर्य की बात जितनी उपयोगी है, उतनी ही उपयोगिता वीतरागता के साथ दैविक सम्पदा की हो सकती है
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जिज्ञासा - श्रीमद् जयाचार्य जैन परम्परा के वर्चस्वी आचार्य थे । वीतरागता और आत्मकर्तृत्व के प्रति उनकी गहरी निष्ठा थी । फिर भी अपनी रचना 'चौबीसी' में उन्होंने स्थान-स्थान पर शरणागति को अभिव्यक्ति दी है । साधना के क्षेत्र में आत्म-कर्तृत्व एवं शरणागति - दोनों का समन्वय कैसे किया जाये ?
समाधान-आत्म-कर्तृत्व और शरणागति में विरोध कहां है? जैन परम्परा में अर्हत्, सिद्ध, साधु और धर्म - इस चतुर्विध शरण का महत्त्व है । इसमें शरणागत को क्या मिलता है ? लेना-देना कुछ है ही नहीं । यह तो आन्तरिक समर्पण और श्रद्धा की अभिव्यक्ति है । आराध्य और आराधक का अद्वैत है । आराध्य के प्रति समर्पण है, सौदा नहीं । सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु, आरुग्गबोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दिंतु आदि वाक्यों का मंत्राक्षर के रूप में स्मरण किया जाता है। यह प्रक्रिया आत्म-कर्तृत्व में कहां बाधक बनती है ? समर्पण के अभाव में होने वाला कर्तृत्व अहंकार पैदा कर सकता है। मैं सब कुछ कर सकता हूं, फिर मैं किसी की शरण क्यों स्वीकार करूं ? यह चिन्तन अभिमान का सूचक है । इससे जुड़ा हुआ कर्तृत्व जीवन को संवारता नहीं, व्यक्ति को दिगभ्रान्त बनाता है ।
जिज्ञासा - जयाचार्य के शासनकाल में नारी को संघीय दृष्टि से बहुमान देने की परम्परा विकसित होते हुए भी उनकी 'चौबीसी' में नारी के लिए राखसणी, वैतरणी, पुतली अशुचि दुर्गन्ध की, जैसे शब्दों का प्रयोग मिलता है । साधना की भूमिका पर ऐसे शब्दों के प्रयोगों के पीछे जयाचार्य का क्या अभिप्राय रहा होगा?
समाधान - चौबीसी में नारी के लिए जिन विशेषणों का प्रयोग है, वह प्रतीकात्मक शैली का नमूना है । मेरे अभिमत से वहां वासना को नारी में रूपायित किया गया है
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इसका दूसरा कारण हो सकता है पुरुषों के लिए एक सुरक्षा कवच का निर्माण । पुरुष महिला के प्रति आकृष्ट होता है, यह उसकी दुर्बलता है । यह दुर्बलता मिटे, उसके मन में आकर्षण न जागे, इस उद्देश्य से महिला को
जिज्ञासा : समाधान : १७१
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