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५७. नारी के तीन रूप
आधी दुनिया का प्रतिनिधित्व करने वाली स्त्री कितनी उपेक्षित, शोषित और प्रताड़ित होती रही है, किसी से अज्ञात नहीं है। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री सदा दोयम दर्जे की जिन्दगी बसर करती है। विकसित और विकासशील सभी देशों में स्त्री को विवाद के घेरे में रखा गया है। समाज व्यवस्था हो या राज्य व्यवस्था, व्यवसाय का क्षेत्र हो या शिक्षा का, परिवार की पंचायत हो या धर्म का मंच, कुछ अपवादों को छोड़कर स्त्री की क्षमताओं का उचित मूल्यांकन और सही उपयोग नहीं हो पाता है। मेरे मन में स्त्री जाति के प्रति सहज ही ऊंची धारणा है। इसकी शक्ति का सदुपयोग हो तो परिवार और समाज को नई चेतना प्राप्त हो सकती है।
स्त्री को सृजन का प्रतीक माना जाता है। मेरे अभिमत से यह ध्वंस के लिए भी एक विस्फोटक का काम कर सकती है। सद्संस्कारों का सृजन और बुराइयों का ध्वंस-ये दोनों ही काम न कानून-कायदों से हो सकते हैं, न भय से हो सकते हैं और न दण्डशक्ति से हो सकते हैं। ऐसे बहुत कानून बने हुए हैं, जो प्रभावी होकर भी अकिंचित्कर हैं। भय का हथियार कच्चे दिमाग वाले बच्चों पर चल सकता है अन्यथा वह भोथरा हो जाता है। दण्डशक्ति एक बार असरकारक हो सकती है। वातावरण में बदलाव आए बिना दण्ड के वार भी व्यर्थ चले जाते हैं। ऐसी स्थिति में नारी शक्ति का प्रयोग करके उसके परिणामों की मीमांसा की जा सकती है।
नारी के मुख्यतः तीन रूप हैं-लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा । परिवार को संस्कार-सम्पन्न बनाते समय वह लक्ष्मी का रूप धारण कर सकती है। सन्तति को शिक्षित करते समय वह सरस्वती बन सकती है और बुराइयों का ध्वंस करने के लिए वह सिंह पर आरूढ़ दुर्गा की भूमिका निभा सकती है। अपेक्षा
१२४ : दीये से दीया जले
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