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जीवन का कोई ऊंचा और सार्थक लक्ष्य हो तो व्यक्ति को नई दिशा मिल सकती है।
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो केवल जीने के लिए नहीं जीते । जीवन के बारे में उनकी स्वतंत्र सोच होती है। वे प्रवाहपाती होकर नहीं जीते। उनके सामने लक्ष्य होता है- भवितुकामिता । वे कुछ होना चाहते हैं, कुछ बनना चाहते हैं, इसलिए कुछ करना भी चाहते हैं । उनकी चाह हथेली पर सरसों उगाने की नहीं होती। उनकी कल्पना उतनी ही होती है, जिसके पंखों पर बैठकर संभावना के आकाश में उड़ा जा सके। उनका दृष्टिकोण विधायक होता है । वे हर घटना को उसके सही परिप्रेक्ष्य में देखते हैं और उससे प्रेरणा लेते हैं। कठिन परिस्थितियों में भी वे अपनी आस्था से विचलित नहीं होते । जिस नीति या सिद्धान्त के आधार पर वे अपने जीवन का तानाबाना बुनते हैं, उसे किसी स्वार्थ की प्रेरणा से छिन्न-भिन्न नहीं होने देते। उनकी संकल्पनिष्ठा इतनी गहरी होती है कि बड़े-बड़े तूफान भी उसकी जड़ों को नहीं हिला सकते |
मनुष्य के जीवन का कोई सार्थक लक्ष्य निर्धारित हो । लक्ष्य की दिशा में गतिशील उसके चरण कहीं रुके नहीं । आस्था का आलोक उसके मन के अंधेरों को दूर करता रहे। विपरीत परिस्थितियों में भी उसकी संकल्पनिष्ठा फौलादी चट्टान बनकर खड़ी रहे । असंयम और अतिभोग की संस्कृति में संयम और भोग पर अंकुश रखने की मनोवृत्ति विकसित हो। इस प्रकार की छोटी-छोटी बातें जीवन के साथ जुड़ें, यह अणुव्रत की आकांक्षा है । जीवन की छोटी-छोटी समस्याओं का मुकाबला करने के लिए छोटे-छोटे संकल्प । छोटी समस्या पर ध्यान नहीं दिया जाता है, तब वह बड़े आकार में खड़ी हो है। अणुव्रत का दर्शन सूक्ष्म है। वह विश्वयुद्ध रोकने के स्थान पर उस चेतना को बदलना चाहता है, जो युद्ध की प्रेरक है । वह परिणाम से पहले प्रवृत्ति पर ध्यान देता है । प्रवृत्ति सही है तो परिणाम गलत हो ही नहीं सकता । अणुव्रत की यह सीख जिस मनुष्य के जीवन में उतर गई 'जीवन कैसा होना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर वह मनुष्य स्वयं ही हो सकता है ।
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परिणाम से पहले प्रवृत्ति को देखें : १२३
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