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________________ एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थं परित्यज्य ये, सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये। तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये, ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ॥ इस संसार में स्वार्थ का परित्याग कर परोपकार करने वाले व्यक्ति पुरुषोत्तम होते हैं। जो स्वार्थ की क्षति किए बिना दूसरों का हित सम्पादन करते हैं, वे सामान्य जन होते हैं। जो लोग अपने स्वार्थ के लिए औरों के हितों का विघटन करते हैं, वे मनुष्य के शरीर में राक्षस हैं। किन्तु जो व्यक्ति बिना ही प्रयोजन दूसरों के हितों पर कुठाराघात करते हैं, उनको किस सम्बोधन से सम्बोधित करें, हमें ज्ञात नहीं है। १२ और १६ मार्च ६३ को क्रमशः बम्बई और कलकत्ता में हुए बमविस्फोट क्या राक्षसी मानसिकता से भी अधम मनोवृत्ति के परिचायक नहीं हैं? बम्बई में व्यवसाय के प्रमुख केन्द्रों और कलकत्ता के बऊ बाजार में जिस बड़े पैमाने पर बम-विस्फोटों की तथा अन्य कई क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में बम उपलब्ध होने की सूचनाएं मिल रही हैं, एक सुनियोजित षड्यंत्र की संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इन विस्फोटों से किस व्यक्ति या वर्ग का कौन-सा स्वार्थ सधा, समझ में नहीं आता। निर्माण की कोई भी बड़ी योजना इतनी व्यवस्थित और गोपनीय ढंग से होती है, कहीं भी सुनने को नहीं मिला। ध्वंस की इतनी बड़ी योजना में कितने व्यक्ति सम्मिलित हुए, कितना समय लगा, फिर भी किसी को उसकी भनक तक नहीं मिली। क्या गुप्तचर विभाग की सभी एजेंसियां निश्चिन्त थीं? क्या वे किसी अन्य अधिक महत्त्वपूर्ण खोज में संलग्न थीं? आज जनता की जुबान पर कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जो बहुत गंभीर चेतावनी देने वाले हैं। बम्बई और कलकत्ता के ये हादसे इमारतों और मनुष्यों के विनाश की ही नहीं, मानवता के विनाश की कहानी कह रहे हैं। बम-विस्फोटों की यह साजिश देश या विदेश के किसी भी व्यक्ति की हो, उसे राक्षस कहना भी कम लगता है। ऐसे व्यक्ति मनुष्यता के सिर पर कलंक का जो टीका लगाते हैं, क्या उसे कभी पोंछा जा सकेगा? प्रश्न बम्बई, कलकत्ता या हिन्दुस्तान का नहीं है। प्रश्न है ऐसी क्रूरतापूर्ण साजिशों का। खिलवाड मानवता के साथ : ११३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003144
Book TitleDiye se Diya Jale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size9 MB
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