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करता है। दूसरों के प्रति उसका व्यवहार कैसा है ? इस बात की चिन्ता किए बिना वह दूसरों से अनुकूल व्यवहार की अपेक्षा रखता है। उनके द्वारा प्रदत्त अनुकूलता में भी उसकी दृष्टि में प्रतिकूलता के प्रतिबिम्ब उभर आते हैं। यह उसका नहीं, उसके निषेधात्मक भावों का दोष है।
__ आज राजनेता निषेधात्मक दृष्टि से सोचता है। समाजसेवी का दृष्टिकोण विधायक नहीं है। धर्मनेता या धर्मोपदेशक का चिन्तन भी इसी दिशा में आगे बढ़ रहा है। ऐसी स्थिति में जनता में प्रेरणा कौन भरे? उसे सही दिशा कौन दे? उसकी मनः स्थिति को कौन बदले ? आज तक सब लोग इसी क्रम से सोचते रहे हैं, इसी भाषा में बोलते रहे हैं और अपने आचरण को विवादास्पद बनाते रहे हैं तो फिर हम नई बात क्यों सोचें? इस प्रकार का चिन्तन भी व्यक्ति के निषेधात्मक भावों का प्रतीक है। किसी ने कुछ भी किया हो, कोई कुछ भी कर रहा हो, मुझे आदर्श जीवन जीना है- यह सोच ही विधायक भाव है। अणुव्रत मनुष्य के विधायक भावों को जगाने का एक प्रयास है। वह आदर्श की बात में नहीं, आचरण में विश्वास करता है।
प्रश्न हो सकता है कि अब तक अणुव्रत से कितने लोगों को रोशनी मिली? कितने लोग सत्पथ पर आए? कितने व्यक्तियों की जीवनशैली बदली? इन प्रश्नों के समाधान में आंकड़े प्रस्तुत करना मेरा लक्ष्य नहीं है। आंकड़ों की संस्कृति ने कोई बड़ा काम किया है, ऐसा प्रतीत नहीं होता। किसने क्या किया? और उसका परिणाम क्या आया? इस उलझन से ऊपर उठकर हर व्यक्ति आत्मविश्लेषण करे, आत्मसंशोधन करे और अपने जीवन के रूपान्तरण से विधायक वातावरण का निर्माण करे। अणुव्रत की यही प्रेरणा व्यक्ति के माध्यम से समाज निर्माण और राष्ट्रनिर्माण का सपना सत्य कर सकेगी।
६० : दीये से दीया जले
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