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३६. आस्था और जागरूकता का कवच
संस्कृति जीवन को संवारने वाला तत्त्व है। उसकी सुरक्षा जीवन की सुरक्षा है। उसमें देश, समाज और जाति के आधार पर किसी विभाजन की अपेक्षा नहीं है। पर मनुष्य की बांटने की मनोवृत्ति ने अन्यान्य तत्त्वों की तरह संस्कृति को भी विभक्त कर दिया। इसीलिए पौर्वात्य और पाश्चात्य संस्कृतियों की सत्ता उजागर हुई। भारतीय और अभारतीय संस्कृति का भेद भी इसी प्रकार की मानसिकता की उपज है। मेरे अभिमत से संस्कृति ऐसा तत्त्व है, जिसे कोई दूसरा क्षति नहीं पहुंचा सकता। धर्म और संस्कृति को लेकर हुए विवादों में परस्पर गाली-गलौच हो सकता है, आतंक फैलाया जा सकता है, अंग-भंग किया जा सकता है, प्राणापहार तक किया जा सकता है। पर कोई किसी को धर्म या संस्कृति से विमुख नहीं कर सकता। परिस्थितियों के सामने घुटने टिकाने वाले व्यक्ति स्वयं ही उससे विमुख हो जाएं, यह दूसरी बात है। व्यक्ति की आस्था और जागरूकता कवच बनकर संस्कृति को सुरक्षा देती है।
धार्मिक, सामाजिक, व्यावहारिक और पारम्परिक रूप में भारतीय संस्कृति की अलग पहचान बन जाने के बाद यह आवश्यक हो जाता है कि उसकी मौलिकता को सुरक्षित रखा जाए। इस संस्कृति की मौलिकता का एक बिन्दु है व्रत या त्याग की चेतना। व्रत सुरक्षा है। मूल्यों, आदर्शों और अच्छाइयों की सुरक्षा। मर्यादा और कानून को तोड़ा जा सकता है। आत्मसाक्षी और गुरु-साक्षी से स्वीकृत व्रत को तोड़ते समय व्यक्ति आत्मग्लानि का अनुभव करने लगता है। किसी परिस्थिति में व्रत का भंग हो जाए तो व्यक्ति की आत्मा भीतर-ही-भीतर कचोटती रहती है। बहुत बार तो संकल्प की नौका डूबती-डूबती किनारे लग जाती है।
आस्था और जागरूकता का कवच : ८३
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