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भगवान चन्द्रप्रभ
है और तब अनुराधा नक्षत्र का सुयोग था। रानी लक्ष्मणा चन्द्रपुरी राजा के शासक महाराजा महासेन की धर्मपत्नी थी। रानी ने गर्भ स्थिर होने वाली रात्रि को 14 शुभ स्वप्नों का दर्शन किया, जो महापुरुष के आगमन के सूचक थे। रानी स्वप्न के भावी फल से अवगत होकर अपार हर्ष अनुभव करने लगी। उसने प्रफुल्लचित्तता के साथ गर्भावधि पूर्ण की और पौष कृष्णा द्वादशी की अनुराधा नक्षत्र में दिव्य आभायुक्त पुत्ररत्न को जन्म दिया। राज-परिवार और प्रजाजन ही नहीं देवों ने भी अति प्रसन्नतापूर्वक यह जन्मोत्सव मनाया। बालक का नाम चन्द्रप्रभ रखा गया। इसके पीछे दो कारण थे। एक तो यह कि गर्भावधि में माता रानी लक्ष्मणा ने चन्द्रपान की अपनी अभिलाषा को पूरा किया था और दूसरा कारण यह कि इस नवजात शिशु की प्रभा (कान्ति) चन्द्रमा के समान शुभ्र और दीप्तिमान थी।
गृहस्थ-जीवन
पूर्व संस्कारों के प्रभावस्वरूप कुमार चन्द्रपुभ के स्वभाव में गम्भीरता, चिन्तनशीलता और सांसारिक आकर्षणों के प्रति अनासक्ति के तत्त्व बाल्यावस्था से ही विद्यमान थे। आयु के साथ-साथ इनमें और भी अभिवृद्धि होती गयी। सांसारिक जीवन से विरक्त स्वभाव होते हुए भी माता-पिता के आग्रह को स्वीकारते हुए युवराज ने गृहस्थ-जीवन में भी प्रवेश किया। उपयुक्त आयु के आगमन पर राजा महासेन ने उनका विवाह योग्य सुन्दरियों के साथ कराया। यह निर्वेद पर वात्सल्य और ममता की अस्थायी विजय ही थी। राज्य सत्ता का भोग भी उन्होंने किया और दाम्पत्य जीवन भी कुछ समय तक व्यतीत तो किया, किन्तु इस व्यवहार पर अतिवाद का स्पर्श कभी नहीं हो पाया। पवित्र कर्तव्य के रूप में ही वे इस सब को स्वीकारते रहे।
चन्द्रप्रभ परम बलवान, शूर और पराक्रमी थे, किन्तु व्यवहार में वे अहिंसक थे। उनकी शक्ति किसी अशक्त प्राणी के लिए पीड़ा का कारण कभी नहीं बनी। शत्रुओं पर भी वे नियन्त्रण करते थे-प्रेमास्त्र से, आतंक से नहीं। वे अनुपम आत्म-नियन्त्रक शक्ति के स्वामी थे। वैभव-विलास के अतल सरोवर में रहते हुए भी वे विकारों से निर्लिप्त रहे; कंचन और कामिनी के कुप्रभावों से सर्वथा मुक्त रहे।
उनके जीवन में वह पल भी शीघ्र ही आ गया जब भोग-कर्मों का क्षय हुआ। राजा चन्द्रप्रभ ने वैराग्य धारण कर दीक्षाग्रहण कर लेने का संकल्प व्यक्त कर दिया। लोकान्तिक देवों की प्रार्थना और वर्षीदान के पश्चात् उत्तराधिकारी को शासन सूत्र सँभालकर स्वयं अनगार भिक्षु हो गये।
दीक्षाग्रहण-केवलज्ञान
अनुराधा नक्षत्र के श्रेष्ठ योग में प्रभु चन्द्रप्रभ स्वामी ने पौष कृष्णा त्रयोगदशी को दीक्षा ग्रहण की। आगामी दिवस को पद्मखण्ड नरेश महाराजा सोमदत्त के यहाँ पारणा हुआ।
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