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चौबीस तीर्थंकर
तीन माह तक छद्मावस्था में रहकर प्रभु ने कठोर तप और साधना की। घने वन्य प्रदेशों में हिंस्र जीव-जन्तुओं के भयंकर उपसर्ग उन्होंने धैर्यपूर्वक सहे। अनेक परीषहों में वे अतुलनीय सहिष्णुता का परिचय देते रहे। दुष्ट प्रवृत्तियों के अल्पज्ञ लोगों ने भी नाना प्रकार के कष्ट देकर व्यवधान उपस्थित किए। रमणियों ने प्रभु की रूपश्री से मोहित होकर उन पर स्वयं को न्योछावर कर दिया और प्रीतिदान की अपेक्षा में अनेक विधि उत्तेजक चेष्टाएँ कीं, किन्तु इन सभी विपरीत परिस्थितियों में भी वे अटलतापूर्वक साधनालीन रहे। उनका मन तनिक भी चंचल नहीं हुआ। समता का अद्भुत तत्त्व प्रभु में विद्यामान था।
इन व्यवधानों की कसौटियों पर खरे सिद्ध होते हुए प्रभु चन्द्रप्रभ स्वामी 3 माह की अवधि पूर्ण होते-होते सहस्राभ्रवन में पधारे। प्रियंगु वृक्ष तले वे शुक्लध्यान में लीन हुए और ज्ञानावरण आदि 4 घातिक कर्मों का उन्होंने क्षय कर दिया। भगवान को केवलज्ञान का लाभ हो गया।
प्रथम धर्मदेशना
देव, दानवों, पशुओं और मनुष्यों की विशाल सभा में भगवान ने देशना दी और चतुर्विध संघ की स्थापना की। देवताओं द्वारा रचित समवसरण में आपने शरीर की अपवित्रता
और मलिनता को प्रतिपादित किया। मानव शरीर बाहर से स्वच्छ, सुन्दर और आकर्षक लगता है; किन्तु यह भ्रम है, छलावा है। शरीर की संरचना जुगुप्सित अस्थि- चर्म, मृदादि से हुई है। यदि इस भीतरी स्वरूप का दर्शन कर ले, तो मनुष्य की धारणा ही बदल जाय। इस वीभत्सता के कारण न तो मनुष्य निज शरीर हेतु उचित-अनुचित उपाय करने में लीन रहे और न ही रमणियों के प्रति आकर्षित हो। यह शरीर मल-मूत्रादि का कोष होकर सुन्दर
और पवित्र कैसे हो सकता है। सरस स्वादु भोज्य-पदार्थ भी इस तन के संसर्ग में रहकर घृण्य हो जाते हैं। यह तन की अशौचता का स्पष्ट प्रमाण है। प्रभु ने अपना मन्तव्य प्रकट करते हुए कहा कि ऐसे अशुचि शरीर की शक्तियों का प्रयोग जो कोई धर्म की साधना में करता है-वही ज्ञानी है, विवेकशील है। वही पुण्यात्मा कहलाने का अधिकारी हो जाता है।
प्रभु की वाणी का अमोघ प्रभाव हुआ। चमत्कार की भाँति देशना से प्रेरित हो सहस्रों नर-नारियों ने संयमव्रत धारण कर लिया। दीक्षित होने वालों के अतिरिक्त हजारों जन श्रावकधर्म में सम्मिलित हो गए। इसके पश्चात भी दीर्घावधि तक अपनी शिक्षाओं से अगणित जनों के कल्याण का पवित्र दायित्व वे निभाते रहे।
परिनिर्वाण
अपने जीवन के अन्तिम समय में भगवान चन्द्रप्रभ स्वामी ने सम्मेत शिखर पर अनशन व्रत धारण कर लिया था। इस अन्तिम प्रयत्न से प्रभु ने शेष अघातिक कर्मों को क्षीण कर दिया और निर्वाण पद प्राप्त कर स्वयं मुक्त और बुद्ध हो गए।
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